
राजा जनक ने जनकौरा गांव में शिवलिंग की स्थापना की।
Ram Mandir Katha: अयोध्या और मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम को लेकर हमारी पड़ताल जारी है। इसके लिए धर्मग्रंथों से लेकर इतिहास के पन्ने पलटने के दौरान कुछ किताबों और संत महंतों से मिलने और उनसे जानकारी जुटाने का सिलसिला अनवरत चल रहा है। इसी दौरान राम की पैड़ी पर अनवरत यज्ञ अनुष्ठान करने वाले संत पंडित कल्किराम ने बताया, "यदि आपको रामायण काल की कुछ सत्य घटनाओं से रूबरू होना है तो आप जनकौरा स्थित मंत्रकेश्वर महादेव मंदिर जाना चाहिए। वहां आपको महाराजा जनक द्वारा स्थापित शिवलिंग का दर्शन हो जाएगा।"
इस जानकारी के बाद दिनभर की थकान भूलकर हम जनकौरा मंदिर की तलाश में निकलने को तैयार हो गए। लेकिन मुश्किल यह थी कि जनकौरा है कहां पर ? हम अभी इस बारे में सोच ही रहे थे कि पंडित जी ने हमारी यह राह भी आसान कर दी। उन्होंने बताया कि शहर से सटे स्थल जनौरा का नाम ही त्रेता युग में जनकौरा हुआ करता था। हमनें पंडित कल्किराम को धन्यवाद दिया और अपनी अगली मंजिल की ओर कदम बढ़ा दिया। कुछ ही देर में हम नाका हनुमान गढ़ी के पास स्थित जनौरा (जनकौरा) पहुंच गए।
पतली ईंटों से भव्य मंदिर बना था
हमें मंदिर ढूंढने में कुछ खास कठिनाई नहीं हुई। मंदिर के गेट पर पहुंचते ही हमें इस मंदिर के पुरातन का अहसास होने लगा। लखौरी ईंटों (बेहद पतली ईंटों) से बना यह मंदिर काफी भव्य और मनमोहन था। मंदिर के सामने स्थित सरोवर उसकी भव्यता को और बढ़ा रहा था। इस सुंदरता को लगातार निहारने का मन तो हो रहा था, पर त्रेतायुग कालीन निशानियां देखने की उत्सुकता मन पर हावी हो गई। हमने अपना कदम मंदिर के गेट की ओर बढ़ा दिया।
थोड़े समय तक इंतजार के बाद हमारी मुलाकात मंदिर के पुजारी शिवरतन सिंह से हुई। मैंने उन्हें अपने आने का उद्देश्य बताया। पुजारी ने हमें कुछ क्षण इंतजार करने को कहा और कहीं चले गए। इंतजार के समय को न गंवाते हुए हम लोग मंदिर परिसर में टहलने लगे। इस दौरान हमने मंदिर के पास स्थापित एक शिवलिंग और उनके सामने स्थापित भगवान नंदी को देखा। इसी दौरान पुजारी जी ने आवाज लगाई। हम पुजारी के साथ मंदिर प्रांगण में ही बैठ गए और बातों का सिलसिला शुरू किया।
राजा दशरथ से जनक ने खरीदा था गांव
पुजारी शिव रतन सिंह ने बताया कि ‘जनकौरा का जिक्र तुलसीदास ने श्रीराम चरित मानस के बालकांड में भी किया है। जनकौरा से पहले इस स्थान का नाम जानकी नगर था।’ मिल रहीं जानकारियां अमूल्य थीं पर हमारी उत्सुकता रामायण कालीन साक्ष्यों को देखने की थी। पुजारी जी से इस बात की चर्चा की गई तो उन्होंने मुस्कराते हुए मुझे इंतजार करने व पहले पूरी कहानी जान लेने की नसीहत दे दी। उन्होंने बताया कि ‘माता जानकी का भगवान राम से पाणिग्रहण होने के बाद वे अयोध्या आ गईं। इसके उपरांत महाराजा जनक काफी उदास रहने लगे। वे अयोध्या तो आना चाहते थे पर उनके सामने यह समस्या आ गई कि सनातन धर्म में बेटी के घर रुकना वर्जित है। महाराजा जनक ने इस परंपरा का पालन करते हुए अयोध्या के राजा दशरथ से उचित मूल्य चुकाकर जनकौरा को खरीद लिया और यहाँ आकर भगवान भोलेनाथ की आराधना के लिए मंदिर का निर्माण कराया।’
मंदिर के पुजारी ने हमें एक ऐसी जानकारी दी, जिससे हम चौंक उठे। उन्होंने बताया कि ‘त्रेता युग में अवतरित भगवान राम जब धरती पर निर्धारित अपनी अवधि पूर्ण कर चुके तो कालदेव स्वयं उनसे मिलने आये और उन्होंने इसी स्थान पर बैठकर भगवान से मंत्रणा की थी। उसी के बाद इस मंदिर का नाम मंत्रकेश्वर महादेव पड़ा।’
राजा जनक ने शिवलिंग की स्थापना की
पुजारी जी के अनुसार इस मंदिर में राजा जनक ने शिवलिंग स्थापित न कर महादेव और मां पार्वती का स्वरूप स्थापित किया था, यही कारण है कि उक्त स्वरूप अन्य शिवलिंग से भिन्न है। अयोध्या के मुख्य सात पीठों में मंत्रकेश्वर महादेव मंदिर भी शामिल है। बताया यह जाता है कि बाबर की सेना ने इस मंदिर को भी काफी छति पहुंचाई थी पर वह भगवान के स्वरूप को नुकसान नहीं पहुंचा सका। जब हमने त्रेतायुग कालीन साक्ष्यों को दिखाने की बात कही तो उन्होंने बताया कि बातचीत से पूर्व आप जिस मूर्ति (शिवलिंग) को निहार रहे थे, उसे ही राजा जनक ने मंदिर में स्थापित कराया था। फिर सवाल किया गया कि यदि भगवान शिव का स्वरूप त्रेता कालीन है तो माता पार्वती का स्वरूप कहां है? इतना कहते ही पुजारी जी उठ खड़े हुए और पीछे आने का इशारा किया। वे मंदिर परिसर में बने एक कमरे में गए और उसका ताला खोलने लगे। बाहर रुकने का इशारा करते हुए वे अंदर चले गए।
कुछ ही मिनट बाद उन्होंनेे आवाज लगाई और अपने पास बुलाया। फिर सामने वह दिखा, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। शिवलिंग प्रकार का एक ऐसा स्वरूप, जो कई स्थानों से टूट चुका था। इस स्वरूप के पौराणिकता का अनुमान भी लगाना कठिन हो रहा था। श्रद्धावश हमारे हाथ प्रणाम करने को स्वयं ही उठते चले गए। अब यह त्रेतायुग कालीन स्वरूप था, अथवा किसी अन्य कालखंड का पर इतना तो जरूर था कि भारतीय संस्कृति को उक्त स्वरूप जीवन्त कर रहे थे।
Updated on:
23 Sept 2023 10:15 am
Published on:
23 Sept 2023 07:34 am
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