नेताजी सुभाष चंद्र बोस के करीबी रहे कर्नल निजामुद्दीन ने कभी नहीं माना कि विमान दुर्घटना में उनकी मौत हुई थी। आजीवन दावा करते रहे कि विमान दुर्घटना के बाद उनकी नेताजी से बात हुई थी।
आजमगढ़ के कर्नल निजामुद्दीन नेताजी सुभाष चंद बोस के सबसे करीबी थे। कर्नल नेताजी का वाहन चलाते थे। जीवन के अंतिम क्षण तक उन्होंने नहीं माना कि नेताजी की मौत हो चुकी है। पीएम मोदी भी उनसे चुनाव में जीत के लिए आशीर्वाद ले चुके हैं। आइए जानते हैं कर्नल निजामुद्दीन और नेताजी सुभाष चंद्र बोस से जुड़े दिलचस्प किस्से कर्नल के पुत्र अकरम निजामुद्दीन की जुबानी...
नेताजी के करीबी राजदार थे कर्नल
कर्नल के पुत्र अकरम निजामुद्दीन बताते हैं कि कर्नल निजामुद्दीन नेताजी सुभाष चंद्र बोस के करीबी राजदार थे। कर्नल नेताजी के वाहन चालक और सुरक्षा गार्ड थे। अंग्रजों के प्रति घृणा और देश के लिए कुछ कर गुजरने के जज्बे ने इन्हें नेताजी का करीबी बनाया। पिता जी बताते थे कि अनछुए पहलुओं से नेताजी के अलावा अगर और कोई पर्दा उठा सकता था तो वे थी कैप्टन लक्ष्मी सहगल थी। अब नेताजी का एक भी राजदार दुनिया में नहीं है।
जापानी पीएम ने दी थी तीन जहाज
अकरम कहते हैं कि पिता जी बताते थे बोस जैसा न तो कोई था और ना ही आगे होगा। उनसे मिलने वाला हर व्यक्ति उनसे प्रभावित हो जाता था। उन्हीं में से जापान के प्रधानमंत्री भी थे। उन्होंने आजाद हिंद फौज की काफी मदद की थी। उस समय सराकार ने नेता जी को तीन जहाज मुहैया कराई थी, जिससे सेना के साथ रसद एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने में काफी मदद मिलती थी।
नेताजी चाहते थे भारतीय फ्रंट पर रहें
जापानी प्रधानमंत्री चाहते थे कि उनकी सेना आगे रहे और भरतीय सेना उनके सहायक के रूप में लड़े जो नेता जी को मंजूर नहीं था। वे चाहते थे कि भारतीय सेना फ्रंट पर रहे।
सफेद झंडा चीता था निशान
आजाद हिंद फौज का झंडा सफेद था उपर छलांग लगाता चीता बना होता था। साथ ही झंडे पर जय हिंद लिया जाता था।
सुल्तान ने दी थी कार
वर्ष 1943 में सिंगापुर के जहबालू द्वीप के सुल्तान ने नेताजी को 12 सिलेंडर की लिंकिग जाफर नाम की कार भेंट की थी। उस कार को सिप से वर्मा लाया गया था। इस कार को कर्नल चलाते थे।
जहाज से गिराते थे पर्चा
प्रवासीय भारतीयों को आईएनए से जोड़ने के लिए जहाज से पर्चे गिराये जाते थे। वहीं पर्चा देखकर शैफुद्दीन बाद का नाम निजामुद्दीन को भी नेता जी के साथ जुड़ने की प्रेरणा मिली थी और वे आजाद हिंद में शामिल हुए थे।
रंगून में एकत्र हुए थे लोग
आजाद हिंद फौज के गठन के बाद नेताजी ने लोगों को रंगून में एकत्र होने को कहा था। यहीं पर रायल लीग स्ट्रीट स्थित डॉ. वामू के मकान में फौज का हेड ऑफिस था।
सिंगापुर में पहली बार गया गया गीत
सिंगापुर के जुबली हाल के पहली बार कदम-कदम कदम बढ़ाये जा गीत गया गाया गया था। इस गीत ने सभी में जोश भर दिया था।
सोने चांदी से नेताजी को तैला गया
सिंगापुर, वर्मा, रंगून के अप्रवासी भारतीयों ने आजाद हिंद फौज के लिए 26 बोरा सोना चांदी दिया। उसी से नेताजी को तौल दिया था। निजामुद्दीन ने जवाहरात से भरे बोरों को पीठ पर लादकर कोषागार में रखा था।
नारे ने खूब किया असर
9 जुलाई 1943 को नेताजी ने करो सब न्योछावर बनो सब फकीर का नारा दिया। इस नारे का इतना असर हुआ कि रंगून में एक दिन में आजाद हिंद फौज बैंक में 20 करोड़ रुपए जमा हो गए थे। इसके बाद अक्टूबर 1943 में आजाद हिंद सरकार को मान्यता मिल गई।
भर आयी नेताजी की आंखे
आजाद हिंद फौज के सिपाहियों ने जब एक साथ देश की आजादी के लिए सब कुछ कुर्बान कर देने की शपथ ली तो नेता जी की आंखे भर आयी थी।
तो बिखर जायेगी सेना
इंफाल की मोरे नदी की लड़ाई के दौरान कर्नल ने नेता जी को बताया था कि हमारे साथ कुछ गद्दार है। जिनकी वजह से हम लड़ाई हार जायेंगे। उस समय नेता जी ने कहा था कि मुझे पता है लेकिन गद्दारों की खबर बाद में ली जाएगी। इस समय कुछ किया गया तो सेना बिखर जायेगी।
कोयल की कूक से देते थे सूचना
आजाद हिंद फौज के लोग वर्मा के टाइची में सुरंग बनाकर रहते थे और रात में छापेमारी करते थे। कोई भी सूचना अदान प्रदान करने के लिए कोयल की आवाज निकाली जाती थी।
हिटलर ने कहा था गुड
वर्ष 1942 में मई महीनें में जर्मनी के बर्लिन में नेताजी ने हिटलर से मुलाकात की थी। उस समय हिटलर ने कर्नल निजामुद्दीन के बारे में पूछा जब नेताजी ने बताया कि हमारे चालक व सुरक्षा गार्ड है तो उसने कर्नल से भी हाथ मिलाया था।
हिटलर हाथ मिलाते समय पूरी ताकत से दबा दिया जब उन्होंने भी जवाब में उसके हाथ को झटका देते हुए जोर से दबाया तो उसने कहा गुड। साथ ही उसने हाथी के दांत के मुखिया वाली पिस्तौल और रेडियो उन्हें गिफ्ट किया। वह 1969 में जब मुबारकपुर थाना क्षेत्र के ढंकवा गांव अपने घर आये तब भी पिस्टल उनके साथ थी लेकिन बाद में परिवार के लोगों ने उसे रख लिया।
नेताजी का सुझाव मान गया हिटलर
वर्ष 1942 में हिटलर की किताब में भारतीयों पर गलत टिप्पणी की गई थी। नेताजी ने जब हिटलर से इस मुद्दे पर बात की तो उसने वादा किया कि अगले अंक में ऐसा नहीं होगा और अपनी पुस्तक के अगले अंक में उसने भारतीयों की भावनाओं की कद्र की।
अंग्रेजो के 12 सिर दिये तोहफे में
अकरम के मुताबिक उनके पिता ने बताया था कि 1942 में उनकी हैसियत सिर्फ फौज में लारी चालक की थी। रात के समय जंगल में उन्हें अंग्रेज दिखे। निजामुद्दीन को ब्रिटिस अफसर की बात याद थी कि सेना में इंडियन मर जाए लेकिन खच्चर नहीं मरना चाहिए।
उसी बात का बदला लेने के लिए उन्होंने 12 अंग्रेजों की गर्दन काट ली और नेता जी के टेबल पर लाकर रख दिया और कहा कि बाबू शिकार लाया हूं। इसके बाद नेताजी ने इन्हें अपना बॉडीगार्ड बना दिया।
ऐसे मिला कर्नल नाम
निजामुद्दीन बताते थे कि एक बार सभी नेताजी के साथ जंगल में खड़े थे। तभी उनकी रूमाल नीचे गिरी और वे उठे उठाकर नेताजी को देने लगे तभी पीछे कई अंग्रेज सैनिक दिखे और निजामुद्दीन नेताजी को पकड़कर नीचे गिर गये। तभी तीन गोलियां चली और दो निजामुद्दीन की पीठ में लगी।
कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने गोली निकाली। होश आया तो पास में नेताजी खड़े थे। उन्होंने कहा तुमने मुझे नई जिंदगी दी है। इसके बाद निजामुद्दीन को सेना में कर्नल की उपाधि दी गई। कर्नल की पीठ पर गोलियों के वे निशान अंतिम समय तक मौजूद थे।
बहरूपिया कहते थे बोस
कर्नल दूसरों की आवाज की नकल और एक्टिंग में भी माहिर थे। उस समय वे अंग्रेज अफसरों की आवाज की नकल किया करते थे। सेना ने कई बार इसका फायदा भी उठाया। यही कारण था कि नेताजी उन्हें बहुरूपिया कहते थे। कर्नल उन्हें बाबू जी कहकर बुलाते थे।
सीक्रेट नहीं करते थे शेयर
नेताजी अपने सीक्रेटप्लान कभी अपने अधिकारियों से भी नहीं शेयर करते थे। यहीं नहीं रात में सोते समय वे बिना किसी को बताये अपना स्थान बदल देते थे। सुरक्षा के दृष्टिकोण से यह बेहद जरुरी भी था।
कुर्ता धोती थी पहली पसंद
नेताजी को कुर्ता धोती बेहद पसंद थी लेकिन सेना के गठन के बाद वे इसका परित्याग कर दिए। फौज खड़ी होने के बाद वे सैनिक के वेश में रहने लगे। फिर कभी कुर्ता धोती में नहीं दिखे।
जर्मन लड़की को लिया था गोद
कर्नल बताते थे नेताजी ने जर्मन में शादी नहीं की थी बल्कि उन्होंने एक जर्मन लड़की को गोंद लिया था। जिससे वे बहुत प्रेम करते थे।
थाइलैंड में था कैंप
थाइलैंड में बैंकाक सिटी से 17 किमी दूरी पर छातेपुरी कैंप था। यहां से भी गतिविधियों का संचालन होता था।
पक्की कराया था कब्र
रंगून में बहादुर शाह जफर की कब्र थी जो काफी जर्जर हो गईं थी। नेताजी ने इस कब्र का पक्की करवाया था।
जयहिंद कहने पर बख्श दी जिंदगी
वर्मा के जंगल में एक बार नेताजी और उनके साथियों की अंग्रेजों से मुटभेड़ हो गयी। कई अंग्रेज मारे गये। नेताजी के फौज के भी कुछ जवान भी घायल हुए। तभी एक अंग्रेज को पकड़कर लोग मारने ही वाले थे कि उसने कहा जय हिंद और नेताजी ने उसकी जिंदगी बख्श दी थी।
नेता जी ने देखा था निशाना
अंग्रेज नेताजी से भय खाते थे। एक बार वर्मा के जंगल में अंग्रेज अफसर का काफी आतंक था। वह इन्हें दिख गया। नेताजी के कहने पर कर्नल ने उसके माथे पर गोली मारी थी। तब नेताजी ने पूछा था इतनी दूर से निशाना लगाना कैसे सीखे तो कर्नल ने बताया था गांव में गुलेल से।
सेना का अपना था बैंक
वर्मा में आजाद हिंद फौज का अपना बैंक और अपनी करेंसी और रेडिया स्टेशन हुआ करता था। फौज की करेंसी को मांडले कहते थे। यह वर्मा में ही छपती थी। फौज में एक पैसा में 2 कड़ा और दो कड़ा में चार पाई हुआ करता था।
पहली बार 1943 में छपी पांच सौ की नोट
वर्ष 1943 में आजाद हिंद बैंक ने पहली बार 500 के नोटों को छापा था, जिस पर नेताजी की तस्वीर बनी थी। यह नोट काफी प्रसिद्ध हुई थी।
सबको मिलता था वेतन
कर्नल बताते थे कि फौज में सबको वेतन मिलता था। उनकी वेतन 17 रुपए महीने निर्धारित थी। लेफ्टिनेंट को 80 रुपए, लेफ्टिनेंट कर्नल को 300 रुपए तथा वर्मा के जो लोग फौज में अधिकारी थे उन्हे 230 रुपये महीने वेतन मिलता था।
नेता जी ने बनाया था अपना इंटेलिजेंस ग्रुप
आजाद हिंद फौज में गुप्तचर विभाग भी था, जिसके प्रमुख अधिकारी नेताजी थे। इसे बहादुर ग्रुप का नाम दिया गया था। इसमें अधिकारी कर्मचारियों की संख्या सीमित थी। इनका काम ब्रिटिश सरकार की गतिविधियों की जानकारी एकत्र करना होता था। पूरे देश में इनका नेटवर्क फैला था। गुप्तचर पनडुब्बी से सिंगापुर और बैंकाक भी जाते थे।
प्रेम के भंडार थे नेताजी
नेताजी प्रेम के भंडार थे। वे अक्सर सेना के सदस्यों के साथ बैठकर भोजन करते थे। कभी-कभी सैनिकों को अपने हाथों से खाना परोसने थे। उनके मन में किसी तरह का भेदभाव नहीं था। उनके बर्तन भी अलग नहीं थे। आम तौर पर वे शाकाहारी भोजन करते थे लेकिन कभी कभी मछली खाना पसंद करते थे। चावल, लौकी, भिंडी और बंगाली खीर उनका पसंदीदा भोजन थी।
लक्ष्मी सहगल पर बहुत था भरोसा
नेताजी कैप्टन लक्ष्मी पर बहुत भरोसा करते थे। उनके कार्यों की अक्सर सराहना करते थे। सहगल सेना के प्रति प्रतिबद्ध थी। उनके अंदर आगे बढ़कर नेतृत्व करने की क्षमता थी।
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दर्जनों भाषा जानते थे नेताजी
कर्नल बताते थे कि नेताजी हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी, जापानी, जमर्न के अलावा दर्जनों भाषा के जानकार थे। वे जहां जाते वहां के लोगों से उन्हीं की भाषा में बात करते थे।
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मौत की अफवाह थी
कर्नल निजामुद्दीन अपने अंतिम समय तक कहते रहे कि नेताजी की मौत अफवाह थी। 18 अगस्त 1945 को प्लेन क्रैश में मौत की खबर में कोई सच्चाई नहीं थी। नेताजी ने अपने मौते की खबर खुद अखबार में पढ़ी और रेडियों पर सुनी थी। नेताजी को पता चल गया था कि कांग्रेस और ब्रिटिश हुकूमत में उन्हें पकड़वाने का समझौता हो चुका है। यह बात उन्होंने खुद कर्नल से कही थी।
20 अगस्त 1945 के बाद नहीं मिली खबर
20 अगस्त 1945 को सितांग में नेताजी और कर्नल की आखरी मुलाकता हुई थी उसके बाद नेताजी नाव से कहीं चले गये थे। उन्होंने अपने पहुंचने की खबर भी वायरलेश पर दी थी लेकिन उसके बाद नेता जी का कोई समाचार नहीं मिला था। नेताजी का साथ छूटने के बाद कर्नल चायनीज बैंक की गाड़ी चलाने लगे थे।
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1955 में नेताजी की तलाश की
कर्नल निजामुद्दीन वर्ष 1955 में नेताजी के तलाश में रंगून से कोलकाता आये थे। उस समय वे नेता जी के परिवार के लोगों से मिले थे लेकिन उन्हें नेताजी के संबंध में कोई जानकारी नहीं मिली थी।
1990 में सहगल से मिले थे कर्नल
वर्ष 1990 में कर्नल कानपुर जाकर कर्नल कैप्टन लक्ष्मी सहगल से मिले थे। कर्नल बताते हैं कि सहगल ने उन्हें देखते ही पूछा था कि कर्नल अभी तुम जिंदा हो। नेताजी कहां गए। कर्नल ने सहगल से पूछा था कि क्या हमें पेंशन मिल सकती है तो सहगल का जवाब था कि हमें भी नहीं मिलती।
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पीएम मोदी ने पैर छूकर लिया था आशीर्वाद
लोकसभा चुनाव में जब पीएम मोदी वाराणसी से मैदान में उतरे तो उन्होंने कर्नल को बुलाया था। कर्नल मंच पर भी पहुंचे थे। पीएम मोदी ने पैर छूकर कर्नल से जीत का आर्शीवाद लिया था। कर्नल पीएम मोदी को बहुत पसंद करते थे।
कर्नल से मिलने आई थी सुभाष चंद्र बोस की प्रपोत्री
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रपोत्री राजश्री चौधरी वर्ष 2016 में कर्नल से मिलने उनके घर पहुंची थी। उन्होंने कर्नल को अपने हाथों से चाय पिलाई थी। कर्नल और नेताजी से जुड़ा किस्सा भी सुना था।
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नेताजी से जुड़े दस्तावेज सार्वजिक होने से खुशहो गए थे कर्नल
अकरम बताते हैं कि जब क्रेंद्र सरकार ने जब नेताजी से जुड़े दस्तावेज सार्वजनिक किया था। उस समय सबसे अधिक खुश निजामुद्दीन ही हुए थे। जब भी कोई नेताजी के निधन की बात करता था तो वे दुखी हो जाते थे। अपने जीवन के अंतिम समय तक उन्होंने स्वीकार नहीं किया कि नेताजी इस दुनिया में नहीं है।
बचपन से सुनते आए नेताजी के किस्से
अकरम बताते हैं कि उनके पिता कर्नल निजामुद्दी और मां अजिबुन्निशा जब भी साथ होते नेताजी की ही बातें करते थे। वह हमें भी बैठाकर नेताजी के किस्से सुनाते थे। उनसे प्रेरणा लेने की सलाह देते थे। कहते थे कुछ बनना है तो बोस जैसा बनो। देश की सेवा में योगदान दो।