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साहब! शौक नहीं मजबूरी में बांधते हैं घुंघरू, नस्तर की तरह चुभती हैं गंदी निगाहें

आर्केस्ट्रा आज मनोरंजन का बड़ा साधन हैं। इसमें काम करने वालों की जिंदगी कैसी होती। महिलाएं इसमें क्यों काम करती है। क्या आपको पता है, कैसा जीवन जी रहे हैं यह लोग।

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वैवाहिक कार्यक्रम में नृत्य करती महिला कलाकार

वैवाहिक कार्यक्रम में नृत्य करती महिला कलाकार

आर्केस्ट्रा के मंच पर जब महिलाएं नाचती हैं तो कुछ लोग उनकी कला की तारीफ करते हैं। ऐसे भी होते हैं जो उन पर फब्तियां भी कसते हैं। कई बार महिला कलाकारों को छेड़खानी का भी सामना करना पड़ता है। फिर भी यह भीड़ के बीच तमाशा बनने के लिए हमेशा तैयार रहती हैं।


न तो इन्हें समाज में सम्मान मिलता है और ना ही परिवार का सुख। फिर भी वे ऐसा क्यों करती है। इस काम को छोड़ती क्यों नहीं। क्या यह इनका शौक है? अगर नहीं तो फिर क्या। आइए जानते हैं इनकी जिंदगी की हकीकत।

IMAGE CREDIT: patrika

आर्केस्ट्र में कितने लोग करते हैं काम
एक आर्केस्ट्रा कंपनी में 12 से 26 लोग काम करते हैं। इसमें छह से आठ महिलाएं होती हैं, बाकी पुरुष। सबका अपना काम होता है। महिलाएं नृत्य करती हैं तो पुरुष, हारमोनियम, तबला से लेकर अन्य वाद्य यंत्र संभालते हैं। कुछ महिलाएं गाना भी गाती हैं।


एक दिन का मिलता है 800 से 1000 रुपया
जिस दिन प्रोग्राम होता है। नृत्य करने वाली महिलाओं को एक हजार रुपये मिलता है। अन्य कलाकारों का भी उनके काम के हिसाब से वेतन फिक्स होता है। जिस दिन काम नहीं होता सभी बेरोजगार होते हैं।

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साल में छह महीने ही मिलता है काम
आर्केस्ट्रा में काम करने वालों को छह महीने ही काम मिलता है। त्योहार और लगन को छोड़ दिया जाय तो बाकी के छह महीने इनके पास कोई काम नहीं होता। उस समय यह लोग परिवार के साथ रहते हैं। छह महीने में जो धन कमाते हैं उसी से साल भर इनका परिवार चलता है।


महिलाएं क्यों करती है ये काम
आर्केस्ट्रा में वही महिलाएं काम करती है जो आर्थिक रुप से कमजोर हैं। जिनका गला अच्छा हो और उन्हें डांस आता हो। मजदूरी करके ये एक दिन में सिर्फ तीन सौ रुपये ही पाती हैं। इसलिए यह काम आमदनी की नजरिए से इन्हें अच्छा लगता है।

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शौक में महिलाएं नहीं बांधती पांव में घुंघुरू
आर्केस्ट्रा में काम करने वाली चंदा कहती हैं कि साहब कोई महिला शौक से पांव में घुंघुरू नहीं बांधती है। वह भी चाहती है कि परिवार के साथ रहे। लोग उसे इज्जत भरी निगाहों से देखें। वह भी अन्य लोगों की तरह घूमें फिरे। परिवार के साथ त्योहार मनाएं, खुशियां बांटे लेकिन नहीं हम त्योहार पर भी नाचते हैं। अपनो से दूर रहते है। यह सब हम मजबूरी में करते हैं।


गरीबी ने चंदा को बनाया डांसर
चंदा कहती हैं मेरा परिवार काफी गरीब है। माता-पिता बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पाते थे। ऐसे में मैं पढ़ने-लिखने या आईएएस-पीसीएस बनने का सपना नहीं देख सकती थी। माता-पिता के काम में हाथ बटाना पड़ता था। मां मजदूरी के लिए जाती थी तो छोटे भाई बहनों को संभालना पड़ता था।

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गाने का बचपन से था शौक
चंदा बताती है कि वह घर में काम करते हुए भी गुनगुनाती रहती थी। गला अच्छा था। पिता बीमार हुए तो स्टेज पर गाने के लिए आ गई। पैसा मिलने लगा तो परिवार की खुशियां भी बढ़ने लगी लेकिन गाना गाकर पैसा कम मिलता था। इसलिए आर्केस्ट्रा में काम करते हुए नाचना भी सीख लिया।

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शादी के बाद भी पांव में बांधना पड़ा घुंघुरू
शादी भी गरीब परिवार में हुई। पति मजदूरी करते हैं। इतना नहीं कमा पाते कि परिवार चल सके। एक बच्चा भी हो गया। जरूरत और बढ़ गई। फिर क्या था पांव में घुंघुरू भी बांध लिया। अब लोगों के मनोरंजन का साधन बन गई हूं। रात भर नाचती हूं और दिन में परिवार संभालती हूं।


नस्तर की तरह चुभती है गंदी निगाहें
चंदा कहती हैं कि हम जहां भी प्रोग्राम करने जाते सुरक्षा की चिंता होती है। कभी-कभी लोग छेड़ने और अश्लील इशारे करने से भी बाज नहीं आते लेकिन क्या करें मजबूरी हैं। लोगों की गंदी निगाहें दिल में नस्तर की तरह चुभती हैं। सबकुछ सहना पड़ता है। क्योंकि परिवार के लिए रोटी जो जुटानी हैं।

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छोड़ना चाहते हैं काम पर विकल्प नहीं
हम लोगों को नाच गाकर खुशी देते हैं लेकिन अकेले में बैठकर रोते हैं। हमें समझ नहीं आता कि आखिर समाज का नजरिया हमारे प्रति ऐसा क्यों हैं। हम भी तो काम कर रहे है। अपनी कला का प्रदर्शन कर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर हैं। फिर हमें आम लड़कियों जैसा क्यों नहीं समझा जाता। कभी कभी सोचते हैं काम छोड़ दें लेकिन मजबूरियां पैर की बेड़ी बन जाती है। अब तो हमने इसे ही अपनी नियति मान ली है।