
सदाचार का नाम ही चरित्र है-आचार्य देवेंद्रसागर
बेंगलूरु. आचार्य देवेंद्रसागर सूरी ने दीक्षार्थी बहन रवीनाकुमारी के बहुमान के उपलक्ष में बसवनगुड़ी के जिनकुशल सूरी जैन दादावाड़ी में आयोजित धर्मसभा में कहा कि सेवा, दया, परोपकार, उदारता, त्याग, शिष्टाचार और सद्व्यवहार आदि चरित्र के बाह्य अंग हैं। तो सद्भाव, उत्कृष्ट चिंतन, नियमित-व्यवस्थित जीवन, शांत-गंभीर मनोदशा चरित्र के परोक्ष अंग हैं। किसी व्यक्ति के विचार इच्छाएं, आकांक्षाएं और आचरण जैसा होगा, उन्हीं के अनुरूप चरित्र का निर्माण होता है। उत्तम चरित्र जीवन को सही दिशा में प्रेरित करता है। चरित्र निर्माण में साहित्य का बहुत महत्व है। विचारों को दृढ़ता व शक्ति प्रदान करने वाला साहित्य आत्म निर्माण में बहुत योगदान करता है। इससे आंतरिक विशेषताएं जाग्रत होती हैं। यही जीवन की सही दिशा का ज्ञान है। मनुष्य जब अपने से अधिक बुद्धिमान, गुणवान, विद्वान और चरित्रवान व्यक्ति के संपर्क में आता है तो उसमें स्वयं ही इन गुणों का उदय होता है। वह सम्मान का पात्र बन जाता है। जब मनुष्य साधु-संतों और महापुरुषों के साथ प्रत्यक्ष रूप में रहता है तो यह प्रत्यक्ष सत्संग होता है, किंतु जब महापुरुषों की आत्मकथाएं और श्रेष्ठ पुस्तकों का अध्ययन करता है तो उसे परोक्ष रूप से सत्संग का लाभ मिलता है, जो सद्भावना के लिए आवश्यक है। मनुष्य सत्संग के माध्यम से अपनी प्रकृति को उत्तम बनाने का प्रयत्न कर सकता है, जिससे सद्भावना कायम रखी जा सके। सद्भावना के लिए स्नेह और सहानुभूति परम आवश्यक है। यदि स्नेह और सहानुभूति का समावेश न किया जाए, तो सद्भावना नहीं रह सकेगी। इसके अलावा किसी भी कार्य की सफलता और असफलता की भी चर्चा की जाए, तो भी स्नेह और सहानुभूति के बगैर सफलता भी असफलता में बदल जाएगी या फिर वह प्राप्त ही नहीं होगी।
Published on:
27 Feb 2022 07:46 am
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