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मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

धर्मसभा में बोले आचार्य देवेन्द्र सागर

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मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

बेंगलूरु. वीवीपुरम स्थित सीमंधर स्वामी जैन मंदिर में प्रवचन के दौरान आचार्य देवेंद्रसागर ने कहा कि मनुष्य का जीवन चक्र अनेक प्रकार की विविधताओं से भरा होता है, जिसमें सुख दु:ख,आशा-निराशा तथा जय-पराजय के अनेक रंग समाहित होते हैं। वास्तविक रूप में मनुष्य की हार और जीत उसके मनोयोग पर आधारित होती है। मन के योग से उसकी विजय अवश्यंभावी है, परंतु मन के हारने पर निश्चय ही उसे पराजय का मुंह देखना पड़ता है।
मनुष्य की समस्त जीवन प्रक्रिया का संचालन उसके मस्तिष्क द्वाारा होता है। मन का सीधा संबंध मस्तिष्क से है। मन में हम जिस प्रकार के विचार धारण करते हैं हमारा शरीर उन्हीं विचारों के अनुरूप ढल जाता है। हमारा मन-मस्तिष्क यदि निराशा व अवसादों से घिरा हुआ है तब हमारा शरीर भी उसी के अनुरूप शिथिल पड़ जाता है। हमारी समस्त चैतन्यता विलीन हो जाती है। परंतु दूसरी ओर यदि हम आशावादी हैं और हमारे मन में कुछ पाने व जानने की तीव्र इच्छा हो तथा हम सदैव भविष्य की ओर देखते हैं तो हम इन सकारात्मक विचारों के अनुरूप प्रगति की ओर बढ़ते चले जाते हैं। उन्होंने कहा कि हमारे चारों ओर अनेकों ऐसे उदाहरण देखने को मिल सकते हैं कि हमारे ही बीच कुछ व्यक्ति सदैव सफलता पाते हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में असफल होते चले जाते हैं। दोनों प्रकार के व्यक्तियों के गुणों का यदि आकलन करें तो हम पाएंगे कि असफल व्यक्ति प्राय: निराशावादी तथा हीनभावना से ग्रसित होते हैं। ऐसे व्यक्ति संघर्ष से पूर्व ही हार स्वीकार कर लेते हैं। धीरे-धीरे उनमें यह प्रबल भावना बैठ जाती है कि वे कभी भी जीत नहीं सकते हैं। वहीं दूसरी ओर सफल व्यक्ति प्राय: आशावादी व कर्मवीर होते हैं। वे जीत के लिए सदैव प्रयास करते हैं। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी वे जीत के लिए निरंतर संघर्ष करते रहते हैं और अंत में विजयश्री भी उन्हें अवश्य मिलती है। ऐसे व्यक्ति भाग्य पर नहीं अपितु अपने कर्म में आस्था रखते हैं। वे अपने मनोबल तथा दृढ़ इच्छा-शक्ति से असंभव को भी संभव कर दिखाते हैं।
आचार्य ने कहा कि अनिच्छा या दबाववश किए गए कार्य में मनुष्य कभी भी अपनी पूर्ण क्षमताओं का प्रयोग नहीं कर पाता है। अत: मन के योग से ही कार्य की सिद्धि होती है मन के योग के अभाव में अस्थिरता उत्पन्न होती है। मनुष्य यदि दृढ़ निश्चयी है तथा उसका आत्मविश्वास प्रबल है तब वह सफलता के लिए पूर्ण मनोयोग से संघर्ष करता है। सफलता प्राप्ति में यदि विलंब भी होता है अथवा उसे अनेक प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ता है तब भी वह क्षण भर के लिए भी अपना धैर्य नहीं खोता है। एक-दो चरणों में यदि उसे आशातीत सफलता नहीं मिलती है तब भी वह संघर्ष करता रहता है और अंतत: विजयश्री उसे ही प्राप्त होती है। इसलिए सच ही कहा गया है कि 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीतÓ। हमारी पराजय का सीधा अर्थ है कि विजय के लिए पूरे मन से प्रयास नहीं किया गया। परिस्थितियां मनुष्य को तभी हारने पर विवश कर सकती हैं जब वह स्वयं घुटने टेक दे।
प्रवचन के बाद सीमंधर स्वामी शांतिसूरी जैन ट्रस्ट के सचिव मीठालाल पावेचा ने समग्र ट्रस्ट मंडल के साथ आचार्य को चैत्र मास की नवपद की आराधना करवाने के लिए विनती की, जिसका लाभ पानीबाई नैनमल टिलावत परिवार ने लिया है। संघ की प्रबल भावना को देखते हुए आचार्य देवेंद्रसागर ने भी अनुमति प्रदान की।