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संसार में रहकर पाप में लिप्त नहीं हों

महावीर जिनालय सिद्धलिंगपुरा में आयोजित धर्मसभा में आचार्य विजय रत्नसेन सूरीश्वर ने कहा कि स्वच्छ पानी से स्नान करने से शरीर शुद्ध होता है।

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संसार में रहकर पाप में लिप्त नहीं हों

संसार में रहकर पाप में लिप्त नहीं हों

मैसूरु. महावीर जिनालय सिद्धलिंगपुरा में आयोजित धर्मसभा में आचार्य विजय रत्नसेन सूरीश्वर ने कहा कि स्वच्छ पानी से स्नान करने से शरीर शुद्ध होता है। उसके बाद वस्त्र, अलंकार आदि को धारण करने से शरीर की शोभा बढ़ती है।


बस वैसे ही सद्गुरु के समक्ष अपने किए हुए पापों के प्रायश्चित्त से आत्मा शुद्ध होती है। उसके बाद आत्मा को सुशोभित करने के लिए व्रत नियमों को यथाशक्ति स्वीकार करना चाहिए। श्रावक को कमल की भांति सांसारिक कार्यों से अलिप्त रहना चाहिए। जैसे कमल कीचड़ में पैदा होता है और जल में बढ़ता है, किन्तु वह दोनों से अलिप्त होकर रहता है।


वैसे ही श्रावक को संसार में रहते हुए सारे सांसारिक कार्यों में पाप के भय से पाप कार्य करते हुए भी पाप में लीन नहीं होना चाहिए। सर्व पापों के त्याग के लिए साधु जीवन की अभिलाषा रखनी चाहिए।

संकट का हरण करता है उवसग्ग्हरं स्तोत्र
बेंगलूरु. भगवान पाश्र्वनाथ मां पद्मावती एकासन के समापन पर अनुष्ठान का आयोजन हुआ। वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ राजाजीनगर की ओर से आयोजित धर्मसभा में साध्वी संयमलता ने कहा कि श्रवणबेलगोला में दो पर्वत हैं। एक बाहुबली का, दूसरा भरत का चन्द्रगिरि पर्वत है। चन्द्रगिरि पर्वत की एक गुफा में बैठकर आचार्य भद्रबाहु ने उवसग्ग्हरं स्तोत्र की रचना की। यह स्तोत्र सभी संकट का हरण करता है।


ज्ञानचंद कोठारी, पारसमल कोठारी, ज्ञानचंद लोढ़ा, प्रकाश मेहता ने मंगल कलश की स्थापना की। पाश्र्वनाथ मां पद्मावती एकासन का आयोजन हुआ। ३०० महिलाओं ने भाग लिया। दोपहर में आयोजित प्रश्न मंच में १५० महिलाओं
ने भाग लिया।

भक्ति के भाव जितने गहरे होंगे, उतना आनंद मिलेगा
बेंगलूरु. स्थानीय गोडवाड़ भवन में वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ चिकपेट शाखा के तत्वावधान में आयोजित चातुर्मास के तहत शुक्रवार को रविन्द्र मुनि ने मंगलाचरण से धर्मसभा की शुरुआत की।


रमणीक मुनि ने कहा कि शुभ भावना और मंगल प्रार्थना करने का सौभाग्य सिर्फ मनुष्य को ही प्राप्त है। इसके जरिए ही हम अपनी आत्मा के सन्निकट हो सकते हैं। परमात्मा की अनुभूति कर सकते हैं। प्रार्थना की सिर्फ एक ही शर्त है भक्ति के भाव गहरे होने चाहिए। जितने गहरे भाव होंगे उतना ही आनंद आएगा, जिस आनंद को आत्मानंद, सच्चिदानंद कहते हैं। उस आनंद की अनुभूति तभी हो सकती है जब हम भाव में गहराई तक जाएं।