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सबसे पहले मन को साधने की कला सीखनी चाहिए : आचार्य विमलसागर

चामराजपेट में प्रवचन

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बेंगलूरु. सुख-दुःख, अपना-पराया, अच्छा-बुरा, योग्य-अयोग्य, सब पहले मन की भूमिका पर निर्धारित होते हैं। मन जैसा मान लेता है, वैसा हम महसूस करते हैं। इसलिए मन के मुताबिक चलकर शांति और आनंद से जीया नहीं जा सकता। ये विचार आचार्य विमलसागरसूरीश्वर ने शनिवार को धर्मसभा में व्यक्त किए।

चामराजपेट स्थित शीतल-बुद्धि-वीर वाटिका के विशाल पंडाल में बोलते हुए उन्होंने अनेक मनोवैज्ञानिक तथ्यों की रोचक विवेचना की। उन्होंने कहा कि भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, अनुकूल, प्रतिकूल, थकान, विश्राम, सबकी अपनी वास्तविकता है, पर इनकी मात्रा, तीव्रता और प्रभाव हमारा मन तय करता है। यही कारण है कि बड़ा सुख भी हमें सामान्य लग सकता है और छोटा सा दुःख भी हमें असह्य प्रतीत होता है।

आचार्य ने कहा कि जो मन के अनुसार जीता है, वह कभी साधक नहीं बन सकता। मन की धारणाओं का विस्तार स्वप्न से अधिक कुछ नहीं है। जो बहुत अधिक मन की सुनते हैं, वे अमूमन भ्रमित, अनिर्णीत, संदेहशील, उद्विग्न, चंचल और विचलित होते हैं। ये सब असाधक के लक्षण हैं। साधक को सबसे पहले मन को साधने की कला सीखनी चाहिये।
रविवार को घंटाकर्ण वीर का विराट् हवन अनुष्ठान व दोपहर को सातवां बाल संस्कार शिविर आयोजित होगा।