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फूलती सांसों के बीच बैरन बन रही राहें, पढि़ए पूरा समाचार

मेडिकल कॉलेज के अस्पताल में नहीं थैलीसीमिया वार्ड, मरीजों पर भारी पड़ रही आवाजाही- अलग से वार्ड होने पर भर्ती कर किया जा सकता है बेहतर इलाज, जोधपुर जाना मजबूरी

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फूलती सांसों के बीच बैरन बन रही राहें, पढि़ए पूरा समाचार

फूलती सांसों के बीच बैरन बन रही राहें, पढि़ए पूरा समाचार

दिलीप दवे

केस 1-

शहदाद का पार की लूणी महज आठ साल की है। जन्म के कुछ समय बाद परिजन को पता चला कि उसे थैलीसीमिया की बीमारी है, जिस पर बाड़मेर लाए। यहां ना तो अलग वार्ड था ना ही सुविधाएं। एेसे में उसे लेकर जोधपुर गए। अब हर माह दो बार जोधपुर जाना पड़ता है। वहीं, मजबूरन बाड़मेर में भी कभी कभार खून चढ़वाना पड़ रहा है।

केस2

शहर के जूना पतरासर क्षेत्र की रूपावती को भी छोटी उम्र में थैलीसीमिया की बीमारी लग गई। माह में दो बार खून चढ़ता है। यहां फिल्टर खून नहीं मिलने और अलग से वार्ड नहीं होने पर परिजन अहमदाबाद या जोधपुर लेकर जाते हैं। आने-जाने में परेशानी होती है, लेकिन फूल सी बच्ची के लिए जाना भी जरूरी होता है।

केस 3

स्थानीय निवासी विकास की उम्र सात साल है। जन्म के बाद परिजन को पता चला कि उसको थैलीसीमिया है, जिसमें हर माह कम से कम दो बार खून चढ़ाना पड़ेगा। परिजन बाड़मेर के अस्पताल लेकर आए तो यहां सुविधाएं नहीं थी। एेसे में बच्चे के लिए हर माह जोधपुर लेकर जाते हैं। बाड़मेर में अलग वार्ड और बेहतर सुविधाएं मिलने पर उनको वहां नहीं जाना पड़ेगा।

बाड़मेर पत्रिका.
थैलीसीमिया एक एेसी बीमारी जिसमें मरीज हर माह दो या इससे अधिक बार नया खून चढ़ाने की जरूरत होती है। किसी मरीज को सप्ताह दस दिन बाद खून चढ़ता है तो किसी को हर पखवाड़े। एेसे में मरीज को बार-बार अस्पताल और घर के बीच चक्कर नहीं काटना पड़े, इसके लिए कई शहरों में अलग से थैलीसीमिया वार्ड बने हैं, लेकिन बाड़मेर में एेसा नहीं है। इस पर मरीज को खून चढ़ाने के बाद परिजन घर ले जाते हैं और तबीयत बिगड़ती देख वापिस अस्पताल लाते हैं। यह समस्या एक-दो दिन करीब तीस-चालीस जनों की है, जो इस बीमारी से जूंझने के साथ लम्बी राह के चलते तकलीफ झेलने को मजबूर है। वहीं, अधिकांश परिजन बाड़मेर में सुविधाएं नहीं मिलने पर जोधपुर जाना बेहतर समझते हैं।

वहां जाना-आना उनकी मजबूरी है, यदि बाड़मेर के मेडिकल अस्पताल में बेहतर सुविधाएं, अलग वार्ड हो तो

यह परेशानी खत्म सकती है।

इसलिए जरूरी वार्ड- थैलीसीमिया मरीज को तत्काल उपचार की जरूरत रहती है। एेसे में अलग से वार्ड होने पर वहां
चिकित्सक, चिकित्साकर्मी आदि चौबीस घंटे उपलब्ध होने पर फायदा मिल सकता है।

वहीं, संक्रमण का खतरा भी नहीं रहता। गौरतलब है कि थैलीसीमिया में संक्रमण का डर सर्वाधिक रहता है।
संक्रमण मरीज की जान जोखिम में डाल सकता है।

अलग वार्ड नहीं, पर मिल रहा इलाज- मेडिकल अस्पताल में थैलीसीमिया को लेकर अलग वार्ड तो नहीं है, लेकिन तीन बैड थैलीसीमिया के अन्य वार्ड में है। जहां इलाज किया जा रहा है। बाड़मेर में करीब पन्द्रह-बीस मरीज है,जो थैलीसीमिया पीडि़त है।- डॉ. बी एल मंसुरिया, पीएमओ जिला अस्पताल


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