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Holi special : प्रहलाद में आस्था: बिश्नोई समाज नहीं करता होली दहन

सूर्यास्त से पूर्व बनता है खिचड़ा, सुबह पाहल व स्नेह मिलन

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Faith in Pahlad: Bishnoi society does not burn Holi

Faith in Pahlad: Bishnoi society does not burn Holi

बाड़मेर. धोरीमन्ना पेड़ व वन्यजीवों को बचाने के अपने प्राण न्यौछावर करने वाले बिश्नोई समाज पर्यावरण संरक्षण व आस्था के चलते होली दहन करना तो दूर, उसकी लौ भी नहीं देखते हैं। होली दहन कि लौ नही देखने के पिछे भी मान्यता हैं कि यह आयोजन भक्त प्रहलाद को मारने के लिए किया था।

विष्णु भगवान ने 12 करोड़ जीवों के उद्धार के लिए वचन देकर कलयुग में भगवान जाम्भोजी के रूप में अवतरित हुए। बिश्नोई समाज स्वयं को प्रहलाद पंथी मानते है।

सदियों से चली आ रही यह परंपरा न सिर्फ पानी कि बर्बादी रोकता है, बल्कि पर्यावरण को बचाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।

होलिका दहन के बाद जहां लोग खुशी उत्साह और उल्लास से एक-दूसरे को रंग गुलाल लगाकर खुशियों से झूमते है, लेकिन प्रहलाद पंथ को मानने वाले विश्नोई समाज के लोग धुलंडी के दिन सुबह हवन कर पाहल तैयार करते हैं।

इसके बाद विष्णु के भक्त प्रहलाद के सुरक्षित बचने की खुशी में मिठाई बांटते हैं। एक-दूसरे से प्रेम से गले मिलते हैं। खास बात यह है जिस वक्त लोग होली मनाते हैं तब विश्नोई समाज के लोग मंदिर में सामूहिक हवन कर पाहल (जांभोजी के बताए 120 शब्दों से पाठ करते हैं) ग्रहण करते हैं।

समाज के वरिष्ठ लोगों के अनुसार पर्यावरण प्रेमी यह समाज होली में हरे पेड़ या लकड़ी को थोक में जलाना नीति नियम विरुद्ध मानता है।

होली पर पुराने गिले शिकवे, मनमुटाव व सामाजिक समस्याएं सुलझाई जाती हैं। हवन पाहल के बाद होली के दिन प्रहलाद चरित्र सुनाया जाता है।

सतयुग में स्थापित प्रहलाद पंथ के स्थापना दिवस के रूप में आज भी यह समाज बिना होलिका दहन के त्योहार को सात्विक रूप से मनाता है। पाहल ग्रहण कर ईश्वर से अपने से जाने-अनजाने में हुई भूल के लिए क्षमा मांगते हैं।

नहीं जलाते होली

होली के दिन विश्नोई समाज पाहल को ग्रहण करना जरूरी मानते है। होलिका दहन से पूर्व जब प्रहलाद को गोद में लेकर बैठती है, तभी से शोक शुरू हो जाता है। बिश्नोई समाज दिन अस्त होने से पहले ही भोजन कर लेते हैं, रात को खाना नहीं खाते हैं।

सुबह प्रहलाद के सुरक्षित लौटने व होलिका के दहन के बाद विश्नोई समाज खुशी मनाता है, तब हवन पाहल ग्रहण करते हैं। लेकिन किसी पर भी रंग नहीं डालते हैं। जानकारी के अनुसार प्रहलाद विष्णु भक्त थे। विश्नोई पंथ के प्रवर्तक भगवान जंभेश्वर विष्णुजी के अवतार थे। कलयुग में संवत 1542 कार्तिक कृष्ण पक्ष अष्टमी को भगवान जंभेश्वर ने कलश की स्थापना कर पवित्र पाहल पिलाकर विश्नोई पंथ बनाया था।

जांभाणी साहित्य के अनुसार तब के प्रहलाद पंथ के अनुयायी ही आज के विश्नोई समाज के लोग हैं। जो भगवान विष्णु को अपना आराध्य मानते हैं।

उन्होंने बताया जो व्यक्ति घर में पाहल नहीं करते हैं, वे मंदिर में सामूहिक होने वाले पाहल से पवित्र जल लाकर उसे ग्रहण करते हैं। वहीं अगर विश्नोई समाज के लोग व्यवसाय को लेकर प्रवास में रहते है, तो भी वहां पर उनके घरों में पाहल बनाकर इसको लिया जाता है।

यूं बनाते हैं पाहल

जांभोजी के मंदिर, चौकी या सामुहिक तौर पर समाजबंधु एकत्रित होते हैं। जहां पर कोरी मटकी में शुद्ध जल भरकर विश्नोई समाज के साधु संतों द्वारा जांभोजी के बताए 120 शब्दों का पाठ किया जाता है। साथ में हवन कर आहुतियां दी जाती है।

पाठ पूरा होने के बाद पाहल मंत्र बोला जाता है। जिसके बाद संतों द्वारा समाजबंधुओं को तीन-तीन घूंट पानी दिया जाता है। जिसे समाज के महिला पुरुष सभी ग्रहण करते हैं। उसके बाद शोक समाप्त हो जाता है, फिर होली की खुशियां मनाई जाती है।


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