
How is this student union election
सोम पारीक
जिले के सात सरकारी महाविद्यालयों में छात्र संघ चुनावों में अभी एक सप्ताह बाकी है पर अन्य चुनावों की छाया इन पर भी स्पष्ट नजर आ रही है। लोकसभा, विधानसभा व स्थानीय निकाय चुनावों में जो कुछ होता है वही सब इस चुनाव में भी नजर आ रहा है। सबसे पहले आचार संहिता की धज्जियां उड़ाना।
छात्रसंघ चुनाव लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों के अनुरूप होने चाहिएं। इसमें स्पष्ट नियम है कि चुनाव प्रचार सिर्फ कैम्पस में होगा पर विभिन्न प्रत्याशी व संगठन अभी से शहरों व कस्बों की सड़कों पर वाहन रैलियां निकाल रहे हैं। इनमें दर्जनों लग्जरी वाहन शामिल होते हैं। संभावित प्रत्याशियों के पोस्टरों से शहर के प्रमुख स्थल रंगे हुए हैं। सड़कों,चौराहों व गलियों में हॉर्डिग, बैनर नजर आ रहे हैं और सड़कों पर पर्चे बिखरे देखे जा सकते हैं जबकि नियमानुसार इन चुनावों में मुद्रित सामग्री का इस्तेमाल नहीं हो सकता।
हाथ से लिखे या फ ोटोस्टेट पम्फ लैट इस्तेमाल हो सकते हैं। शहर व कस्बों में चुनाव कार्यालय भी आरंभ हो गए हैं। प्रचार के अन्य सभी माध्यमों के साथ ही सोशल मीडिया का भी जमकर इस्तेमाल हो रहा है। आखिर इन सबके लिए आर्थिक संसाधन कहां से आ रहे हैं?
तय नियमों के मुताबिक छात्र संघ चुनाव में कुछ हजार रुपए ही खर्च करने की अनुमति है पर यहां तो लाखों खर्च हो गए हैं और अभी तो नियमानुसार नामांकन ही दाखिल नहीं हुए हैं। संभावित प्रत्याशी शहर व कस्बों के गली मोहल्लों के साथ ही गांवों तक पहुंच रहे हैं। विभिन्न छात्रावासों में लगातार संपर्क किया जा रहा है।
उम्मीदवारों के साथ ही प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक पार्टियां भी सक्रिय हो रही हैं। उनके समर्थक व रिश्तेदार भी मतदाताओं को रिझा रहे हैं। जाति-बिरादरी के साथ ही हर तरह की दुहाई दी जा रही है जबकि नियम यह है कि चुनाव प्रचार सिर्फ कैम्पस तक ही सीमित रहना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि नियमों के पालन के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। छात्रसंघ चुनाव में कहीं भी नियमों का उल्लंघन होने पर महाविद्यालय प्रशासन सख्त निर्णय लेने को स्वतंत्र व सक्षम है। यहां तक कि वह किसी की उम्मीदवारी भी रद्द कर सकता है। शहर में सार्वजनिक स्थलों को बदरंग व गंदा करने पर नगर परिषद थाने में एफ आइआर तक दर्ज करवा सकती है।
जिला व पुलिस प्रशासन भी सख्ती बरत कर नियमों का पालन करवा सकता है। पर व्यवहार में सभी पक्षकार इन चुनावों को बोझ समझते हैं। कोई भी उलझना नहीं चाहता और जैसे तैसे प्रक्रिया निपटा राहत की सांस लेना चाहते हैं। इसी का फ ायदा उठा प्रत्याशी मनमानी करते हैं और उन्हें कोई रोकता-टोकता तक नहीं।
इतना सब होने के बाद जो प्रतिनिधि चुनकर आते हैं वे भी छात्रों की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते। कारण बिल्कुल साफ है। हमारी स्थापित व्यवस्था में ज्यादातर निर्णय राजनीतिक होते हैं।
व्याख्याताओं के रिक्त पद भरने हों या नए विषयों की शुरूआत, कहीं महाविद्यालय भवन या खेल मैदान के लिए बजट की जरूरत हो सभी निर्णय राजनीतिक लाभ- हानि की तराजू पर तौल कर होते हैं। विद्यार्थियों के हित अक्सर गौण हो जाते हैं। ऐसे में जरूरत है कि सभी पक्ष मिलबैठकर सभी पहलुओं पर विचार करें। छात्र संघों को कुछ शक्ति भी मिले पर सबसे पहले जरूरत नियम- कायदों के पालन की है।
Updated on:
22 Aug 2019 03:09 pm
Published on:
22 Aug 2019 03:07 pm
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