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साधना का मूल अनासक्ति-आचार्य महाश्रमण

संवर के दस प्रकारों का वर्णन

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साधना का मूल अनासक्ति-आचार्य महाश्रमण

साधना का मूल अनासक्ति-आचार्य महाश्रमण

भीलवाड़ा।
आचार्य महाश्रमण ने कहा कि अध्यात्म की साधना का महत्वपूर्ण अंग है संवर। भीतर की यात्रा के लिए बाहर का संवरण अपेक्षित है। इंद्रिय विषयों के प्रति अनासक्ति की भावना रखते व्यक्ति भीतर में रमण कर सकता है। ज्यों-ज्यों व्यक्ति का विषयों के प्रति अनाकर्षण बढ़ता है त्यों-त्यों उत्तम तत्व की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ सकता है। विषयासक्त और भीतर जीना विरोधी बातें है। साधना का मूल अनासक्ति है। जीवन व्यवहार में समुदाय और व्यक्ति के प्रति अनासक्त रहकर ही भीतर जीया जा सकता है।
संवर के दस प्रकारों का वर्णन करते हुए आचार्य ने कहा कि इंद्रिय, मन, वचन, काय और उपकरण संवर यह पांच मुख्य है। संवर एक अनुशासन है। इंद्रिय, मन, वचन, काय और उपकरणों का संवर करना आत्मानुशासन की साधना है। व्यक्ति संसार में रहते हुए पूर्णतया पदार्थों से विरक्त हो जाए यह तो कठिन है परंतु पदार्थों के उपयोग के प्रति अनासक्त रहकर भीतर स्थित हो सकता है। श्रहो भीतर जीयो बाहर, इस सूत्र का आत्मसात संवर की साधना से ही संभव है।