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बारेला समुदाय में पुरुष स्वांग रचकर नाचते-गाते घर-घर जाकर Óवसूलते हैं फागÓ… नर्तक दल को भेंट में मिलते हैं गेहूं, गुड़, पिण्ड खजूर

होली पर विशेष - उत्सवधर्मी वनवासी धूमधाम से मनाते हैं तीज-त्योहार, होली की हैं अनूठी सतरंगी परंपराएं - होली के एक सप्ताह पूर्व भरने वाले भोंगर्या (भगोरिया) हाट में पान के बीड़े-झूले का आकर्षण तो नृत्य-गायन भी होता है खूब

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बारेला समुदाय में पुरुष स्वांग रचकर नाचते-गाते घर-घर जाकर Óवसूलते हैं फागÓ... नर्तक दल को भेंट में मिलते हैं गेहूं, गुड़, पिण्ड खजूर

बारेला समुदाय में पुरुष स्वांग रचकर नाचते-गाते घर-घर जाकर Óवसूलते हैं फागÓ... नर्तक दल को भेंट में मिलते हैं गेहूं, गुड़, पिण्ड खजूर

भोपाल. होलिका के रूप में अहंकार, दम्भ और दृष्टता के दहन का पर्व है होली। आसुरी वृत्तियों पर भक्ति, सत्यनिष्ठा और प्रेम जैसी सकारात्मक भावनाओं की विजय का उत्सव है होली। इसलिए इस त्योहार में उत्साह है, आनंद है... और इन भावों को रंगों के माध्यम से व्यक्त करने का साम्र्थय भी है। होली ऐसा पर्व है, जिसमें प्रकृति का उल्लास मुखरित होता है। प्रदेश कावनवासी समुदाय उत्सवधर्मी है। रक्षाबंधन, दशहरा, दीपावली और होली जैसे महापर्व हों... देवी-देवताओंं का पूजा-पाठ या आह्वान हो फिर विवाह, संतानोत्पत्ति, मौसम परिवर्तन, महामारी से बचाव के लिए अनुष्ठान और फसल कटाई जैसे अवसर, ये समुदाय उत्सव का कोई अवसर नहीं छोड़ते। इनमें होली के उत्सव की भी अनूठी और सतरंगी परंपराएं हैं।

भील जनजाति समूह के लोग सर्व शक्तिमान की अदृश्य सत्ता को मानते हैं। वे उसकी व्यवस्था को सहज भाव से स्वीकार भी करते हैं। सृष्टि में विद्यमान सजीव और निर्जीव में ये उस अलौकिक के अंशरूप को देखते, अनुष्ठान करते और उसके प्रति सम्मान प्रकट करते हैं। भील जनजाति समूह के इष्ट के प्रति आस्था पूजा-अुनष्ठानों और पर्व उत्सवों के माध्यम से व्यक्त होती है। आस्था की यह अभिव्यक्ति अकेले, परिवार के साथ अथवा सामुदायिक रूप से की जाती है। पूजा-अनुष्ठान और पर्व-उत्सवों का स्वरूप इसी आधार पर निर्धारित होती है। पर्व-उत्सवों में सारी अभिव्यक्तियां प्रतीकात्मक होती हैं।

होली पर फाग को कहते हैं 'गेहरÓ, पुरुष पहनते हैं घाघरा-पोलका
भील जनजाति समूह के बारेला समुदाय में होली के अवसर पर 'गेहरÓ यानी फाग की परंपरा है। इसमें पुरुषों का समहू ढोल, मांदल, टुमकड़ी जैसे वाद्यों के साथ नृत्य-गान करते हुए घर-घर जाकर गेहर (फाग) मांगते या वसूलते हैं। गेहर एक रंजक पर्व हे। इसमें पुरुषों की टोली स्वांग रचती है। एक व्यक्ति फटा घाघरा और पोलका यानी ब्लाउज पहनकर चेहरे पर काला रंग पोत लेता है। उसका सिर मछली पकडऩे वाले पुराने जाल से ढंका होता है। वह झुण्ड में शामिल होकर नाचते हुए बीच-बीच में बच्चों को डराता है। इसे राहवी कहा जाता है।

अंतिम दिन होता है भव्य भोज
नर्तक दल में रायबुड़ले भी होते हैं। पुरुष धोती के ऊपर पोलका और सिर पर पगड़ी पहनकर रायबुड़ले का वेश धारण करते हैं। इनकी संख्या पांच या उससे अधिक होती है। फाग के रूप में नर्तकों को लोग गेहूं, गुड़, पिण्ड खजूर, दाली, कांगणी आदि सामग्री देते हैं। इसका उपयोग गेहर समूह आयोजन के अंतिम दिन भोज में करता है।

होली से एक सप्ताह पूर्व होता है प्रेम और उल्लास का प्रतीक भगोरिया
भगोरिया भील जनजाति समूह का वसंतोत्व है। होली के एक सप्ताह पूर्व भरने वाले भोंगर्या (भगोरिया) हाट में पान के बीड़े और झूले का आकर्षण सबको खींच लाता है। इसके अलावा और उन सबके लिए जो सबसे बड़ा आकर्षण होता है, वह है नृत्य और संगीत। गांव-गांव में युवक-युवितयों की टोलियां बन जाती हैं। साज-श्रृंगार का सामान जुटाया जाता है। भोंगर्या से संबंधित सामग्री की खरीद-फरोख्त के लिए भगोरिया के पूर्व तेवार्या यानी त्योरिया हाट भरती है, जिसका उल्लेख इस गीत में आया है।

आयो रे भाया, भंगर्यो आयो।
तेवार्यो, गुलाल्यो, भंगर्यो आयो।
यानी
ओ भाई, भगोरिया आया है।
त्योहारिया, गुलालिया... भागोरिया आया है।

होली पर बैगा समुदाय करता है अग्नि देव की पूजा
फागुन पूर्णिमा की सूबह सेमल का डांडा गाड़ा जाता है। गड्ढे में पहले अण्डा रखते हैें। डांडा के आस-पास लकड़ी रखी जाती है। गांव का मुकद्दम या मुखिया रात्रि के चौथे पहर में होली का दीया जलाकर पूजा करता है। इसके बाद छीर बारी के पूले में आग लगाकर उसे अपने ऊपर से घुमाकर होली में फेंक देता है। गांव के सभी लोग छीर बारी के तिनके लेकर यही क्रिया करते हैं। मान्यता है कि इससे शरीर रोग और बाहरी बाधाओं से मुक्त रहता है। इस तरह से होली पर बैगा समुदाय अग्नि की पूजा करता है, क्योंकि जंगल में रहने और ठंड के दिनों में यही आग उनकी रक्षा करती है।

अगले दिन पहले राख और मिट्टी फिर रंगों से खेलते हैं होली
दूसरे दिन गांव के लोग राख और मिट्टी से होली खेलते हैं। इसके बाद गुलाल और रंगों की होली भी होती है। आमतौर पर ये रंग पलाश और इसी तरह की वनस्पतियों से तैयार किए जाते हैं। पलाश के केसरिया रंग में सतकठा की राख डालने से ये रंग पक्का हो जाता है। इस अवसर पर गांव के युवक-युवतियां, प्रौढ़ स्त्री-पुरुष टोली बनाकर फाग गाते और नृत्य करते हैं। बांस का कुदवा बनाकर नाचते हुए गांव में हर घर में जाते हैं। घर के मालिक को टीका लगाते हैं। इसके एवज में मालिक उन्हें नेग स्वरूप अनाज और पैसे देते हैं। इससे गांव में सामूहिक भोज होता है।