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एक किस्सा: पहले लोकसभा में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह था दो बैलों की जोड़ी, दूसरी पार्टी का निशान था पंजा

एक किस्सा: पहले लोकसभा में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह था दो बैलों की जोड़ी, दूसरी पार्टी का निशान था पंजा

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भोपाल

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Pawan Tiwari

Mar 25, 2019

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एक किस्सा: पहले लोकसभा में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह था दो बैलों की जोड़ी, दूसरी पार्टी का निशान था पंजा

भोपाल. ये तस्वीरें देश के पहले लोकसभा चुनाव के प्रचार की हैं। नारे भी लिखे हैं और लोग भी मौजूद हैं। एक किस्सा में हम बात करेंगे लोकसभा चुनावों के कुछ रोचक पहलुओं के बारे में जिन्हें शायद आप नहीं जानते हों। पहले बात उस स्याही की जो वोटिंग के दौरान मतदाताओं के हाथों में लगाई जाती है। क्या कभी आपने सोचा है आखिर वोटिंग के लिए इस स्याही का ही चयन क्यों किया गया। क्यों ये स्याही लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व में शामिल होने का प्रमाण बन गई। आखिर ये स्याही आई कहां से और क्या है इस स्याही का इतिहास। ये हम आपको इसलिए बता रहे हैं कि एक बार फिर से देश चुनाव के लिए तैयार है। देश में 17वीं लोकसभा चुनाव के लिए बिगुल बज गया है और चुनाव आयोग के अनुसार, इस बार लोकसभा चुनाव में देश में करीब 90 करोड़ मतदाता वोट करेंगे।

फर्जी वोटिंग रोकने के लिए हुआ था स्याही का प्रयोग
चुनाव के दौरान फर्जी मतदान रोकने के मकसद से इस स्याही का प्रयोग चुनाव के लिए किया गया था। नाखून पर लगाई जाने वाली स्याही सबसे पहले मैसूर के महाराजा नालवाड़ी कृष्णराज वाडियार द्वारा 1937 में स्थापित मैसूर लैक एंड पेंट्स लिमिटेड कंपनी ने बनायी थी। वर्ष 1947 में देश की आजादी के बाद मैसूर लैक एंड पेंट्स लिमिटेड सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बन गई। अब इस कंपनी को मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड के नाम से जाता है। कर्नाटक सरकार की यह कंपनी अब भी देश में होने वाले प्रत्येक चुनाव के लिए स्याही बनाने का काम करती है और इसका निर्यात भी करती है। स्याही निर्माण के लिए इस कंपनी का चयन वर्ष 1962 में किया गया था।

इस स्याही का प्रयोग पहली बार देश में पहली लोकसभा चुनाव के लिए किया गया था। इस स्याही को बनाने की निर्माण प्रक्रिया गोपनीय रखी जाती है और इसे नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी आफ इंडिया के रासायनिक फार्मूले के आधार पर तैयार किया जाता है। यह आम स्याही से अलग होती है। ऊंगली पर लगने के 60 सेकंड के भीतर ही सूख जाती है और कई दिनों तक हाथ में लगी रहती है। इस स्याही को जल्दी छुड़ाया नहीं जा सकता है। मैसूर पेंट्स और वार्निश लिमिटेड इस स्याही को दुनिया के 35 देशों में एक्सपोर्ट करते हैं। स्याही की 10 मिलीलीटर की एक बोतल से 800 वोटरों को निशान लगाया जा सकता है।

पहली बार 1951 में हुए थे आम चुनाव
अब बात करते हैं दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के पहले आम चुनावों की। देश में पहली बार 1951 में आम चुनावों का एलान हुआ और परिणाम आये थे 1952 में। करीब पांच महीने चुनाव की प्रक्रिया चली थी। चुनाव आयुक्त थे सुकुमार सेन। देश में जब पहली बार लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई उस उमय 85 फीसदी आबादी निरक्षर थी और कभी स्कूल नहीं देखा था। पहले लोकसभा चुनाव में महिलाओं की पहचान उनके नाम से नहीं बल्कि उनके पति और बेटों के नाम से होती थी। देश के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन विपरीत परिस्थितियों में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव का पूरा ढांचा खड़ा किया था।

1951-52 के पहले आम चुनाव में एक संसदीय क्षेत्र ऐसा भी था, जहां से 3 सांसद चुने गए। यह संसदीय क्षेत्र था- नॉर्थ बंगाल। पहले लोकसभा में संसदीय सीट का नाम तो एक होता था पर कई जगह दो सांसद चुने गए थे। एक सामान्य वर्ग से और दूसरा एससी/एसटी वर्ग से। 1951-52 में 86 और 1957 में 92 संसदीय क्षेत्र 2 सांसदों वाले थे। उसके बाद 1962 में यह व्यवस्था खत्म कर दी गई। 489 सीटों पर पहली बार चुनाव हुए थे। इस दौरान देश के 26 भारतीय राज्यों में वोटिंग हुई थी। 17 करोड़ 32 लाख 12 हजार 343 मतदाताओं के नाम वोटर लिस्ट में थे इनमें से 10 करोड़ 59 लाख लोगों ने वोट किया था जिनमें करीब 85 फीसद निरक्षर थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (कांग्रेस) 364 सीटों पर जीत मिली थी। 1951 के आम चुनाव में 14 राष्ट्रीय पार्टी, 39 राज्य स्तर की पार्टी और निर्दलीय उम्मीदवारों ने किस्मत आजमाई। कुल 1874 प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा रहे थे।

पहले चुनाव में ढाई लाख मतदान केंद्र बने थे। साढ़े सात लाख बैलेट बॉक्स बनाए गए थे। तीन लाख से ज्यादा स्याही के पैकटों का इस्तेमाल हुआ था। चुनाव आयोग ने करीब 16 हजार लोगों को अनुबंध के तहत 6 महीने चुनाव का काम कराया था। चुनाव आयोग ने वोट डालने के लिए खुद प्रचार किया था। आयोग की तरफ से गांव-गांव में नुक्कड़ नाटक करवाए जाते थे। सिनेमा घरों में वोट करने के लिए फिल्में चलाई जाती थीं। घर-घर जाकर लोगों को वोट के मह्त्व बताए जाते थे। वोट करने के लिए 21 साल की उम्र निर्धारित की गई थी। राजस्थान के कोट बूंदी सीट पर सबसे कम 22.59 फीसदी लोगों ने ही वोट डाले, जबकि केरल के कोट्टायम सीट पर सबसे ज्यादा 80.49 फीसदी लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। 25 अक्टूबर, 1951 को पहला वोट हिमाचल प्रदेश की चिनी तहसील में पड़ा था और यहीं से शुरू हो गई थी देश के सबसे बड़े लोकतंत्र की आधारशिला।

पार्टियों को दिए गए थे चुनाव चिन्ह
मतदाता की निरक्षरता के कारण पार्टियों और उम्मीदवारों के लिए चुनाव चिन्ह की व्यवस्था की गई। सुकुमार से वोटरों की सुविधा के लिए पार्टियों के चुनाव चिह्न देने तरीका अपनाया। सभी 14 नेशनल पार्टियों को चिह्न दिए गए। पहले चुनाव में कांग्रेस का सिंबल बैलों की जोड़ी था। कांग्रेस का आज का चुनाव चिन्ह हाथ का पंजा पहले लोकसभा चुनाव में फॉरवर्ड ब्लॉक पार्टी का चिह्न था। हर पार्टी के लिए अलग-मतपेटी की व्यवस्था की गई थी और उन पेटियों में उनके चुनाव चिन्ह छापे गए। इसके लिए लोहे की दो करोड़ बारह लाख मतपेटियां बनाई गई थीं और करीब 62 करोड़ मतपत्र छापे गए थे। कई सीटों पर वोटर्स वोट डालने से डर रहे थे तो कई सीटों पर अपने बैलट पेपर को फाड़कर सभी उम्मीदवारों के बॉक्स में डाल दिया गया था। कुछ लोगों ने तो बैलट बॉक्स में फूल की पत्तियां, सिक्के और नोट्स भी डाल दिए थे।

1957 में हुई थी दूसरी लोकसभा
पहली लोकसभा यानी 1952 की सफलता के बाद 1957 में दूसरी बार आम चुनाव आयोजित किए गए थे। इस बार 490 सीटों पर चुनाव हुए थे। इसी चुनाव के बाद से रायबरेली सीट कांग्रेस का गढ़ बनी। इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी 1957 के चुनाव में पहली बार रायबरेली से चुनाव लड़ा था। 1957 के चुनावों की दिलचस्प बात यह रही कि इसमें एक भी महिला उम्मीदवार मैदान में नहीं थी और निर्दलीय उम्मीदवारों को देशभर में 19 प्रतिशत वोट मिला था। इस चुनाव में कांग्रेस की जीत हुई थी और पंडित जवाहर लाल नेहरू दूसरी बार प्रधानमंत्री बने थे। इस कार्यकाल में पंचवर्षीय योजना की शुरुआत की नींव रखी गई थी। 1977 में प्रति वोटर खर्च जहां 71 पैसे था वहीं 1980 यह डेढ़ रुपए प्रति वोटर पर पहुंच गया।

1998 में प्रयोग हुए थे ईवीएम
देश में पहली बार नवम्बर 1998 में आयोजित 16 विधान सभाओं चुनावों में ईवीएम का प्रयोग किया गया। ईवीएम में अधिकतम 3840 वोट डाले जा सकते हैं। ईवीएम में 64 उम्मीदवारों के नाम शामिल किए जा सकते हैं। एक मशीन में 16 नाम जोड़े जाते हैं अगर किसी क्षेत्र में 16 से अधिक उम्मीदवार चुनावी मैदान में होते हैं तो वहां मशीन जोड़ दी जाती है। एक एवीएम में चार मशीन जोड़ी जा सकती है अगर उम्मीदवारों की संख्या 64 से अधिक हो जाए तो वहां मत पत्र का इस्तेमाल करना होगा। एक बार फिर से देश लोकसभा चुनावों के लिए तैयार है। इस बार के चुनाव में 90 करोड़ मतदाता वोटिंग करेंगे तो 10 लाख पोलिंग बूथ बनाए गए हैं। पहले लोकसभा के चुनाव में प्रचार के लिए जहां नुक्कड़ नाटकों का सहारा लिया जाता था वहीं, अब सोशल मीडिया का दौर है और कैंपेन के लिए सोशल मीडिया का भी सहारा लिया जा रहा है लेकिन 1951 से अब तक के चुनाव में अगर कुछ देखने वाली बात थी तो वो थी लोकतंत्र का मजबूत होना हर लोकसभा चुनाव में देश इस देश का लोकतंत्र हर बार मजबूत होकर दुनिया के सामने आया।