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इन गेम्स की लत बना रही नशे की तरह एडिक्ट

राजधानी में स्टूडेंट्स ही नहीं वर्किंग से लेकर ओल्ड एज ग्रुप तक के लोग हो रहे शिकार...  

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इन गेम्स की लत बना रही नशे की तरह एडिक्ट

भोपाल। मोबाइल व लैटटॉप पर गेम खेलने की आदत धीरे-धीरे एडिक्शन बन रही है। स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि वल्र्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन(डब्ल्यूएचओ) ने इसे मानसिक विकार की श्रेणी में शामिल कर लिया है। अब गेमिंग डिसॉर्डर यानी इंटरनेट गेम से उत्पन्न विकार को मानसिक स्वास्थ्य की गंभीर अवस्था के रूप में अपने इंटरनेशनल क्लासिफिकेशन ऑफ डिजीज (आइसीडी) में शामिल किया है।

डब्लूएचओ की ओर से प्रकाशित आइसीडी एक नियमावली है जिसे 1990 में अपडेट किया गया था। शहर में हालत यह हो गए है कि सिर्फ स्टूडेंट्स ही नहीं वर्किंग पर्सन से लेकर बुजुर्ग तक इसका शिकार बन रहे हैं। मनोचिकित्सकों के पास हर माह सौ से ज्यादा नए केसेज सामने आ रहे हैं। वर्चुअल गेम्स में किसी सेलिब्रेट का पड़ोसी बनना या अंबानी की तरह घर बनाने जैसे गेम्स लोगों में हीनता की भावना पैदा कर रहे हैं।

अवेयरनेस प्रोग्राम से होगा फायदा
डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी के अनुसार डब्ल्यूएचओ की लिस्ट में शामिल होने के बाद इसे लेकर विश्व स्तर पर सरकार के स्तर पर अवेयरनेस प्रोग्राम चलाए जाएंगे। गेम खेलने की लत केवल बच्चों में होती है। बहुत से दफ्तरों में भी एंग्री बर्ड, टेम्पल रन, कैंडी क्रश, कॉन्ट्रा जैसे मोबाइल गेम के कई दीवाने मिल जाएंगे। लोग अक्सर समय बिताने के लिए लोग इसे खेलना शुरू करते हैं, पर ये कब आदत में बदल जाता है और जिंदगी का अहम हिस्सा बन जाता है, इसका अंदाजा इस्तेमाल करने वाले को कभी नहीं लगता।

क्या है गेमिंग डिसऑर्डर
- गेम खेलने की अलग तरह की लत होती है। ये गेम डिजिटल गेम भी हो सकते हैं या फिर वीडियो गेम भी। डब्लूएचओ के मुताबिक इस बीमारी के शिकार लोग निजी जीवन में आपसी रिश्तों से ज्यादा अहमियत गेम खेलने को देते हैं, जिसकी वजह से रोज के कामकाज पर असर पड़ता है, लेकिन किसी भी आदमी को अगर इसकी लत है, तो उसे बीमार करार नहीं दिया जा सकता।

- डॉक्टर्स सालभर के गेमिंग पैटर्न को देखने की ज़रूरत होती है। अगर उसकी गेम खेलने की लत से उसके निजी जीवन में, पारिवारिक या सामाजिक जीवन में, पढ़ाई पर, नौकरी पर ज्यादा बुरा असर पड़ता दिखता है तभी उसे गेमिंग एडिक्ट यानी बीमारी का शिकार माना जा सकता है।
नशे की तरह है गेमिंग एडिक्शन

डॉ. त्रिवेदी के अनुसार मोबाइल या फिर वीडियो गेम खेलने वाले बहुत कम लोगों में ये बीमारी का रूप धारण करती है, लेकिन इस बात का ख्याल रखना बेहद जरूरी है कि दिन में कितने घंटे मोबाइल पर गेम खेलते हुए बिताते हैं। अगर जीवन के बाकी काम निपटाते हुए मोबाइल पर गेम खेलने का वक्त निकाल पाते हैं तो उन लोगों के लिए ये बीमारी नहीं है।दिन में चार घंटे गेम खेलने वाला भी बीमार हो सकता है और दिन में 12 घंटे गेम पर काम करने वाला ठीक हो सकता है। कई मामले में साइको थैरेपी ही कारगर होती है, ज्यादातर मामलों में कॉग्नीटिव थैरेपी का इस्तेमाल किया जाता है। बच्चों में प्ले थैरेपी से काम चल सकता है। ये सब इस बात पर निर्भर करता है कि मरीज में एडिक्शन किस स्तर का है। गेमिंग एडिक्शन भी नशे की तरह है यदि पीडि़त तुरंत इसे बंद कर देता है तो उसे नींद न आना, धड़कन बढ़ाना जैसे तकलीफ होने लगती है।

केस-1

11वीं क्लास के स्टूडेंट प्रतीक(बदला हुआ नाम) को 10वीं में अच्छे अंक लाने पर उसके दादा ने उसे मोबाइल गिफ्ट किया। मोबाइल पर गेम खेलने की ऐसे लत लगी कि वह दिन में 15 से 17 घंटे सिर्फ गेम खेलने लगा। हालात ये हो गए कि वह 11वीं क्लास में फेल हो गया। पेरेन्ट्स ने लत छुड़ाने की कोशिश की तो उसने खुद को कमरे में बंद करना शुरू कर दिया। मोबाइल छूटने पर लेपटॉप में गेम खेलने लगा। रोकने पर परिवार के सदस्यों को जाने से मारने की धमकी देना लगा।


केस-2

मंडीदीप स्थित एक कंपनी में जॉब करने वाले नीरज(बदला हुआ नाम) को गेम खेलने की ऐसी लत लगी कि वह कंपनी में काम के दौरान भी गेम खेलते रहता। घर जाकर पत्नी व परिवार से बात करने की बजाए गेम में ही खोया रहता। उसने शादी व पार्टीज में जाना तक बंद कर दिया। इस बार को लेकर परिवार में झगड़े होने लगे। नौबत तलाक तक आ गई।

केस-3

66 वर्षीय अमिता(बदला हुआ नाम) को कैंडी क्रेश खेलने का शौक लग गया। वह दिन भर और सुबह 4 बजे तक गेम ही खेलती रहती। हालात यह हो गए कि उसने नींद तक आना बंद हो गई। गोलियां को भी असर नहीं हो रहा था। पोता भी इस बात से परेशान रहता कि दादी उससे बात नहीं करती। महिला का कहना है कि उसे गेम खेले बिना नींद भी नहीं आती।