
भगवान परशुराम चारों युगों यानि सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग में लगतार बने हुए हैं। त्रेता युग में भगवान श्रीराम को धनुष भगवान परशुराम ने ही दिया था, जिस धनुष से भगवान राम ने राक्षसों का वध किया था। इसी तरह द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र भी भगवान परशुराम ने ही दिया था। इसी चक्र से कई राक्षसों का वध हुआ।
भगवान् परशुराम जी अवतार सबसे प्रचंड और सबसे व्यापक रहा है। यह प्रचंडता तप और साधना में भी है और प्रत्यक्ष युद्ध में भी। उनकी व्यापकता संसार के हर कोने में रही और हर युग में रही। वे अक्षय हैं, अनंत हैं। प्रलय के बाद भी रहने वाले।
उनका अवतार सतयुग और त्रेेेता के संधिकाल में हुआ। अर्थात वे ही नामति हैं सतयुग के समापन के और त्रेेेताके आरंभ के। वे ही निमित्त बने द्वापर में धर्म संस्थापना के और वे ही निमित्त बनेंगे कलियुग की पूर्णता के। उनका अवतार बैशाख माह शुक्लपक्ष तृतीया को हुआ। चूंकि अवतार अक्षय है इसीलिए यह तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। उनका अवतार एक प्रहर रात्रि पूर्व हुआ। चूंकि अवतार ऋ षि परंपरा में हुआ इसलिए यह पल ब्रह्म मुहूर्त कहलाता है। उनके आगे चारों वेद चलते हैं, पीछे दिव्य बाणों से भरा तूणीर है। वे शाप देने और दंड देने दोनों में समर्थ हैं। वे चारों वर्णों में हैं और चारों युग में हैं। जब तप साधना से ब्रह्त्व को प्राप्त कर वेद ऋचाओं का संसार को देते हैं तब से ब्राह्मण हैं, जब प्रत्यक्ष युद्ध में दुष्टों का अंत करते हैं तब क्षत्रीय हैं। जब लोक कलाओं का विकास कर समाज को समृद्ध बनाते हैं तब वैश्य हैं। और जब दाशराज युद्ध में घायलों की अपने हाथ से सेवा शुषुश्र करते हैं तब सेवा वर्ण में माने जाते हैं। भगवान् शिव का भक्त तो पूरा संसार है पर परशुराम जी उनके एक शिष्य हैं। भगवान् शिव ने आषाढ़ की पूर्णिमा को ही परशुराम जी को शिष्यत्व प्रदान किया था। इसलिये वह तिथि गुरु पूर्णिमा है। उनका अवतार ऋ षि परंपरा में भुगु कुल में हुआ। ये वही मिहर्ष भृगु हैं जिनके चरण चिन्ह नारायण अपने हृदय पर धारण करते हैं। और श्रीमद्भागवत गीता के दसवें अध्याय में भगवान् कृष्ण ने कहा कि मैं ऋ षियों में भृगु हूँ इसी परम प्रतापी भृगुकुल में भगवान् परशुराम जी का अवतार हुआ। वे मिहर्ष ऋ चीक के पौत्र और मिहर्ष दमदाग्नि के पुत्र रूप में प्रकट हुये। देवी रेणूआ उनकी माता है। पुराणों में मान्यता है कि मिहर्ष जमिदग्न और देवी रेणुका शिव और शिक्त के रूपांश हैं। देवी रेणुका यज्ञसेनी हैं। उनका जन्म उसी यज्ञ कुण्ड से हुआ महाराज दक्ष के यज्ञ में कभी देवी सती ने स्वयं को समिर्पत किया था। इसीलिए यज्ञसेनी देवी रेणुका को दैवी सती का अंश माना जाता है। उन्होंने स्वयंवर में धरती के समस्त राजाओं को अनदेखा कर मिहर्ष जमिदग्न का वरण किया था। वे राजा रेणु की पुत्री थीं । राजा रेणु ने भी बाद में तप करके ऋ षीत्व प्राप्त किया ।
भगवान् परशुराम जी के सात गुरु हैं। प्रथम गुरुमाता रेणुका, द्वितीय गुरु पिता जमिदग्न, तृतीय गुरू मिहर्ष चायमान, चतुर्थ गुरु मिहर्ष विश्वामित्र, पंचम गुरु मिहर्ष वशिष्ठ, षष्ठ गुरु भगवान् शिव और सप्तम गुरु भगवान् दत्तात्रेय हैं । उन्होंने त्रेता युग में भगवान राम को विष्णु धनुष दिया, द्वापर में उन्होंने ने ही भगवान् कृष्ण को सुदर्शन चक्र और गीता का ज्ञान दिया। और कलियुग में होने वाले भगवान् नारायण के किल्क अवतार को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा भगवान् परशुराम जी ही देंगे । उन्होंने पूरे संसार को एक सूत्र में बांधा। संसार के प्रत्येक को ने में उनके चिन्ह मिलते हैं। संसार को श्रीविद्या देने वाले भगवान् परशुराम जी ही हैं। उन्हें यह सूत्र भगवान् दत्तात्रेय से मिला और उन्हीं के संकेत उन्होंने इसका प्रचार संसार में किया । भगवान् परशुराम जी के शिष्य सुमेधा हैं । जिन्होंने शिक्त उपासना के सूत्र संसार को दिये । संसार में आये तो नामकरण में उनका नाम राम रखा गया । और जब भगवान् शिव ने परशु प्रधान किया तो परशुराम कहलाये । लैकिन अमेरिका की खुदाई में श्रीयंत्र के आकार जैसा शिल्प मिला । इसका अर्थ है कि भगवान परशुराम जी द्वारा प्रदत्त श्री विद्या तब वैश्विक हो गयी थी। उनके मार्गदर्शन में ही यह उद्घोष हुआ कि विश्व को आर्य बनाना है । आर्य अर्थात वह श्रेष्ठ मानवीय गुणों से युक्त मानवता जिसमें सत्य अहिंसा, परोपकार और क्षमा के गुण हों भगवान् परशुराम जी का यही संदेश लेकर ही वैदिक आर्यो के दल धरती के विभिन्न क्षेत्रों में गये और मानवत्व की स्थापना की । भगवान् परशुराम जी संदेश लेकर गये वेदिक आर्यों ने ही रोम की स्थापना की थी । प्राचीन मिश्र का रोमसे साम्राज्य भी राम अर्थात भगवान् परशुराम जी से ही संबंधित था। रोम और रोमन शब्दों की सीधा संबंध राम से है। भगवान् परशुराम जी का जीवन का समूचा अभियान, संस्कार, संगठन, शिक्त और समरसता के लिए समिर्पत रहा है। वे हमेशा निर्णायक और नियामक शिक्त रहे। दुष्टों का दमन और सत-पुरूषों को संरक्षण उनके की विषेशता है।
भगवान परशुराम जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने के लिए वे परिस्थितियां जान लेना जरूरी है जिनमें उनका अवतार हुआ। वह वातावरण अराजकता से भरा था। एक प्रकार से जिसकी लाठी उसकी भैंस मानों ऐसा वातावरण समाज और संसार में बन गया था। इसका वर्णन ऋग्वेद से लेकर लगभग प्रत्येक पुराण में है । ऋ ग्वेद के चौथे मंडल के 42वें सूत्र में तीसरी ऋ चा से संकेत मिलता है कि किसी त्रस नामक दस्यु ने स्वयं को Óइन्द्रÓ और वरूण ही घोषित कर दिया। उसने कहा 'हम ही इन्द्र और वरूण है' अपनी महानता के कारण विस्तृत गंभीर तथा श्रेष्ठ रूप वाली धावा-पृथ्वी हम ही है, हम मेघावी है, हम त्वष्टा देवता की तरह समस्त भुवनों को प्रेरित करते हैं तथा धावा-पृथ्वी को धारण करते है।
इसी मंडल के इसी सूक्त के चौथी, पांचवी और छठी ऋचा में भी ऐसे ही अहंकार से भरी उद्घोषणाएं हैं । ऋग्वेद के अन्य मंडलों में भी ऐसी अनेक ऋचाएं हैं। यह वह समय था जब ऋ षि परंपरा का मान नहीं रह गया था, ऋ षियों और सत्पुरुषों की हत्याएं की जा रही थी, आश्रम जलाएं जा रहे थे। अथर्ववेद में वर्णन आया है कि अनाचार अत्याधिक बढ गए थे, उन्होंने भृगुवंशियों को विनष्ट कर डाला और बीत हव्य हो गए। इन परिस्थितियों के कारण पूरे संसार में हा-हाकार हो गया। चारों तरफ ईश्वर से बचाने की प्रार्थना की जाने लगी। वेदों में ऐसी ऋचाऐं हैं जिनमें इस अनाचार वर्णन है देवों से सहायता करने का आव्हान भी। जिन देवताओं से सहायता करने के लिये आव्हान किया गया उनमें अग्रदेव से, वरूण , इन्द्र आदि देवी देवताओं से रक्षा करने की प्रार्थना की गई है। ऋ षियों और मनुष्यों पर आए इस संकट को मिटाने के लिए नारायण का यह छठवां अवतार हुआ । इससे पूर्व हुये नारायण के पांचो अवतार आंशिक या आवेश के अवतार माने गए लेकिन परशुराम जी पहला पूर्ण अवतार है। उनका जन्म कुल सुविख्यात भृगुवंश विज्ञान और अध्यात्म के नए- नए अनुसंधानों के लिए जाना जाता है। अिग्न का अविष्कार भृगु ऋ षियों ने किया। (ऋग्वेद 1-127-7)। नारायण की हृदेश्वरी लक्ष्मी मिहर्ष भृगु की बेटी है। (बिष्णु पुराण अध्याय 9 शलोक 141) इसी भृगुवंश में भगवान परशुराम जी का अवतार हुआ । उनकी माता देवी रेणुका उन्हें अभिराम कहा करती थी । पिता मिहर्ष जमिदग्न ने ÓभृगुरामÓ पुकारा, तो ऋ षि कुलों में वे Óभार्गव राम कहलाए ।
उस कालखंड में मानवीय गुण और संस्कार अपने विकृति की पराकाष्ठा पर पहुंच गये थे । संसार में नरबलि और पशुबलि जैसी कुप्रथाएँ आरंभ हो गयी थीं । भगवान् परशुराम जी ने बाकायदा अभियान चलाकर ऐसी कुप्रथाओं का अंत किया । इससे संबंधित एक प्रतीकात्मक कथा पुराणों में मिलती है । उसके अनुसार एक आयोजन में बालक शुनशैप की बलि दी जा रही थी। भगवान परशुराम जी तब किशोर वय में थे । अपने मित्र विमद और देवी लोम्हार्षिणी के साथ पहुंचे । बलि स्थल पर पहुंचे । उन्होंने पहले यज्ञाचार्य से शास्त्रार्थ किया । लेकिन बात नहीं बनीं तब फिर वरूण देव का आव्हान किया । वरूण प्रकट हुए । उन्होंने नरबलि के निषेध करने की घोषणा की । वरु ण देव से स्पष्ट किया कि बलि का देवों से कोई संबंध नहीं यह दैत्यों के अहंकार का प्रतीक है । और संसार को प्राणी मात्न में देवत्व होंने का संदेश मिला । तार्किक दुष्टि से प्रश्न वरूण के प्रकट होने या न होने का नहीं है। इस कथा से संकेत मिलता है कि अपने किशोर वय से ही परशुराम जी ने समाज की कुप्रथाओं को रोककर एक संस्कारी समाज के निर्माण का अभियान छेड दिया था। उस काल में जितने अराजक और आतंकी तत्व थे वे कोई और नहीं थे। परस्पर संबंधी भी थे । सभी उस परम् पिता परमात्मा की संतान थे जिन्होंने देवों को भी बनाया सभी में उनका अंश है । लेकिन जब लोग भ्रष्ट हो गये मूल्यों से गिर गये और 'आर्यत्वÓ के संस्कारों से दूर हो गये तब ऋ षियों ने उनको बिहष्कृत कर दिया था । बिहष्कार से अपमानित उन राजन्यों ने न केवल ऋ षियों और य़क्षों के विरूद्ध अभियान छेड दिया बल्कि वे निरंकुश और स्वेच्छाचारी हो भी गए । जिससे संसार में हाहाकार मच गया । उन्होंने समूची धरती को चार भागों में बांटा। नर्मदा के नीचे आनर्त, नर्मदा से गंगा तक ब्रम्हावर्त, गंगा से अष्वप्रदेश तक आर्यवर्त इससे आगे पर्सवर्त अथवा पारिसक प्रदेश। राजाओं के हाथ से न्याय और दंड व्यवस्था ले ली गई। नीतिगत निर्णयों में राजपुरोहित का परामर्श अनिवार्य किया गया । इन चारों साम्राज्यों का अधिष्ठाता कश्यप ऋ षि को बनाया । यह कश्यप सरोवर ही संभवतया आज का 'केश्पियन-सी' है।
पारिवारिक व्यवस्था में परिवार की मुखिया मां होगी। यह व्यवस्था भी परशुराम जी ने लागू की। इसका कारण यह था कि उस भारी नरसंहार के बाद निराश्रित स्त्रियों और बच्चों की समस्या हो गई थी। परशुराम जी ने ब्रह्मचारियों और समाज के अन्य अविवाहित युवकों से इन स्त्रियों से विवाह की व्यवस्था लागू की। और आगे उत्पन्न होने वाली संतान के पालन में कोई भेद न हो इसलिए परिवार का संचालन की प्रमुख माता को बनाया गया। समाज के प्रत्येक व्यक्ति को, वर्ग को शिक्षा के अवसर दिए गए। ऋग्वेद का नवां और दसवां मंडल भगवान परशुराम जी के आचार्यत्व में ही तैयार हुआ। इस मंडल का 110वां सूक्त जहां उनका स्वयं का रचित है वहीं इन दो मंडलों में अनेक सूक्त ऋ षि रेणू, पुरूखा, विश्वकर्मा वास्तु, ऋ षि धानक, प्रजापति, इन्द्र माताओं, यमी विश्वान के द्वारा रचित हैं। इसमें ऋ षि रेणू देवी रेणुका के पिता थे जो बाद में सन्यास लेकर ऋ षि बनें। और मिहर्ष विश्वामित्र के शिष्यत्व में वेद दृष्टा। पुरूरवा ऐल प्रतिष्ठान के राजा पुरूवा के पुत्र थे। ऋ षि धानक के वंशज ही आज धानुक समाज के रूप में जाने जाते हैं। विश्वकर्मा और प्रजापति के नामों में कोई परिवर्तन नहीं हैं। तब कहां है वर्ग का संघर्ष, कहां है वर्ण का संघर्ष। वह समाज एक समरस था जिसमें व्यक्ति की मान्यता उसके आचरणों से और प्रजा शिक्त से होती थी, तब तक वर्ण व्यवस्था लागू ही नहीं थी। वर्ण व्यवस्था पौराणकि काल से आरम्भ हुई जबकि परशुराम जी का अवतार वैदिक है। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी प्रतिभा के अनुसार काम का अवसर देने का यह अद्भुत उदहरण है जो आज के लिए समयानुकूल है।
Published on:
03 May 2022 01:32 am
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