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1857 से पहले इन वीरों ने किए थे अंग्रेजों के दांत खट्टे, बनने जा रहा है बड़ा स्मारक

जब खेती बारी करने वालों ने उठाए हथियार, अंग्रेजों की बढ़ा दी मुश्किल (Paika Rebellion History) और (Indian Freedom Fighters) बाद (India Freedom Fights) में (Paika Rebellion Memorial) ...

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Paika Rebellion History

1857 से पहले इन वीरों ने किए थे अंग्रेजों के दांत खट्टे, बनने जा है बड़ा स्मारक,1857 से पहले इन वीरों ने किए थे अंग्रेजों के दांत खट्टे, बनने जा है बड़ा स्मारक,1857 से पहले इन वीरों ने किए थे अंग्रेजों के दांत खट्टे, बनने जा है बड़ा स्मारक

(भुवनेश्वर): इतिहास के पुनर्लेखन की कड़ी में ओडिशा के पाइक विद्रोह को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल करने का वादा भले ही केंद्र सरकार भूल गई हो पर पाइक विद्रोह स्मारक का शिलान्यास करवाना उसे बराबर याद रहा। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के करकमलों द्धारा यह कार्य रविवार (8.12.2019) को होगा। एनडीए-1 की सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री रहे प्रकाश जावडेकर ने भुवनेश्वर में कहा था कि पाइक विद्रोह को पाठ्यक्रम में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का स्टेटस दिया जाएगा। यह वादा अब तक पूरा नहीं हो पाया।

पीएम ने किया था सम्मानित...

बीती 2017 में पाइक विद्रोह के 200 साल हुए तो केंद्र ने राज्यव्यापी शताब्दी समारोह मनाने का ऐलान किया था। इसके लिए बजट में 100 करोड़ का प्रावधान तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने किया था। यही नहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंग्रेजों के खिलाफ पाइक विद्रोह के नायक बक्सी शहीद जगबंधु के परिजनों को राजभवन में सम्मानित किया था।


पाइक विद्रोह का राजनीतिकरण शुरू

ओडिशा में उनकी वीरता और शहादत से लोगों का भावनात्मक लगाव है। 20 जुलाई 2017 को 200वीं वर्षगांठ पर दिल्ली में आयोजित हुए कार्यक्रम में मोदी ने शिरकत की थी। केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने पाइक विद्रोह का स्मारक निर्माण के लिए ओडिशा सरकार से जमीन उपलब्ध कराने की मांग की थी। जमीन मिल भी गई। बीजेपी को यह मुद्दा उठाता देख बीजेडी अध्यक्ष मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भला पीछे क्यों रहते। पटनायक ने ही इसे आजादी की पहली लड़ाई के रूप में मान्यता देने की मांग उठाई थी। पाइक विद्रोह को लेकर दो सौ साल बाद बीजेडी और बीजेपी के आमने-सामने आने से पाइक विद्रोह का राजनीतिकरण शुरू हो गया।


यूं हुआ खूनी संघर्ष...

बता दें कि पाइक विद्रोह तब हुआ था जब 1803 में ईस्टइंडिया कंपनी ने मराठाओं को हराया और ओडिशा पर कब्जा कर लिया। इसके बाद अंग्रेजों ने खोरदा के तत्कालीन राजा मुकुंददेव-2 से दुनिया में मशहूर जगन्नाथ मंदिर का प्रबंधन छीन लिया। मुकुंददेव-2 के नाबालिग होने के कारण राज्य चलाने का पूरा जिम्मा जयी राजगुरु पर था। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध जंग छेड़ दी तो अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें गिरफ्तार करके फांसी पर लटका दिया। इस घटना से लोगों में आक्रोश फैला। इसे क्रांति की शक्ल दी बक्शी जगबंधु ने। गुरिल्ला युद्ध के अंदाज में बक्शी के सैनिक अंग्रेजों पर हमला करने लगे। कालांतर में इसी को पाइक विद्रोह का नाम दिया गया। खोरदा राजा के ये खेतिहर सैनिक युद्ध के समय हथियार उठाते थे और बाकी समय खेतीबारी किया करते थे।

1817 में हुए युद्ध को लेकर यह है बीजेडी की राय

ओडिशा सरकार का कहना है कि जिसे (1857) आजादी की पहली लड़ाई कहा जाता है उससे 40 साल पहले तो अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पाइक विद्रोह की लड़ाई हुई। इसलिए इसे प्रथम स्वंतंत्रता संग्राम की श्रेणी में रखा जाए। एक समिति गठित की गई जिसकी रिपोर्ट के आधार पर इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का दर्जा देने की बात सामने आई।

खास बातें

1. ओडिशा कैबिनेट ने 1817 के पाइक विद्रोह को भारत की आजादी की पहली लड़ाई घोषित करने के लिए केंद्र से आग्रह करने के प्रस्ताव के बाद नवीन ने तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह को पत्र लिखा। उनके अनुसार इसे प्रथम स्वतंत्रता की लड़ाई कहने में कोई हर्ज नहीं है। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तक पाइक विद्रोह के एक समारोह में दिल्ली में शामिल हुए थे।

2. पाइक विद्रोह 1817 में ब्रिटिश हुकूमत की शोषणकारी नीतियों के विरुद्ध ओडिशा में पाइक जाति के लोगों द्धारा किया गया एक हथियारबंद विद्रोह था। पाइक ओडिशा के पारंपरिक भूमिगत रक्षक सेना थी तथा वे योद्धाओं के रूप में वहां के लोगों की सेवा करते थे। पाइक विद्रोह के नेता बक्शी जगबंधु थे। पाइक जाति महाप्रभु जगन्नाथ को ओडिशा एकता का प्रतीक मानती है।

3. पाइक विद्रोह के कई सामाजिक, राजानीतिक और आर्थिक कारण थे। 1803 में कंपनी की खोरदा विजय के बाद पाइकों की शक्ति और प्रतिष्ठा घटने लगी थी। अंग्रेजों ने विजय के बाद पाइकों की वंशानुगत लगान-मुक्त जमीन हड़प ली तथा उन्हें उनकी भूमि से वंचित कर दिया। जबरन वसूली और उत्पीड़न का दौर यहीं से शुरू हो गया। न केवल किसान बल्कि जमींदार तक प्रभावित होने लगे। यही नहीं कंपनी ने कौड़ी मुद्रा व्यवस्था तक खत्म कर दिया। यह मुद्रा ओडिशा में प्रचलन में थी। टैक्स चांदी में चुकाना अनिवार्य हो गया था। जंग के यही प्रमुख कारण थे।