
बिजनौर. एक दौर था जब गांवों में साइकिल पर सवार खाकी ड्रेस पहने डाकिया आता था। डाकिया को देख सभी लोगों के चेहरे खुशी के खिल जाते थे कि शायद उनके लिए कोई डाक लाया होगा। डाकिया जिसके लिए डाक लाता था उनके चेहरे खिल जाते थे तो कई लोगों के चेहरे पर उनका कोई डाक न होने पर मायूसी भी छा जाती थी। लेकिन अब गांवों में डाकिया नहीं दिखाई देता है।
पैदल घूम कर डाक बांटते थे डाकिया
करीब चार दशक पहले तक गांवों में डाकिया पैदल घूम कर डाक बांटते थे। फिर 90 की दशक में डाकिया साइकिल पर सवार होकर गांवों में डाक बांटते थे। देखते ही देखते बाइक का दौर भी आ गया लेकिन अब मोबाइल ऐप के जरिए डाक बंट रही हैं। समय ने तमाम बदलाव कर दिए हैं। अब अपनों की खबर लेने देने वाली चिट्ठी नहीं आती, सिर्फ जरूरी डाक आती हैं। फोन, ईमेल से लेकर सोशल मीडिया के माध्यम से संदेशों का आदान-प्रदान किया जाता है।
घोड़ा तांगे में बैठकर आता था डाकिया
देश में पहले डाकघर की शुरुआत एक अप्रैल 1854 को हुई थी। इसके बाद पूरे देश में डाक विभाग का नेटवर्क बना। मनी ऑर्डर और तार जैसी सुविधाएं डाक विभाग ही देता रहा। बिजनौर के शादीपुर के रहने वाले गोविंद गुप्ता का कहना है कि अब गांव में डाकिया आता है तो मालूम नहीं पड़ता। 90 का दशक आते डाकिया भी दौर बदलने शुरू हो गए थे। पहले डाकिया घोड़ा तांगे में बैठकर आता था। गांव में पैदल ही घूमकर चिट्ठी बांट देता था। पूरे मोहल्ले को जानकारी हो जाती थी कि उनके यहां चिट्ठी आई है। अब डाकिया बाइक से आते हैं और चले जाते हैं।
रेडियो का लाइसेंस देता था डाक विभाग
डाक विभाग में पोस्टमास्टर के पद पर काम करने वाले लक्ष्मीकांत जोशी ने बताया कि डाक विभाग तार अधिनियम 1885 के तहत रेडियो सुनने का लाइसेंस भी जारी करता था। कई लोगों के एक साथ सुनने पर कमर्शियल लाइसेंस लेना होता था। जिसका लाइसेंस शुल्क बीस रुपये होता था। प्राइवेट का शुल्क कम था। बाद में इसे बंद कर दिया गया। इसके अलावा टेलीग्राम भी डाकखाने में ही आते थे। अब तार बंद हो चुके हैं। पोस्टकार्ड नाममात्र ही आते हैं, पत्रिका आदि की पोस्ट काफी आती जाती हैं। उन्होंने बताया कि अब नई तकनीक आ गई है, रिकॉर्ड रखने में आसानी है।
Published on:
09 Oct 2021 01:32 pm
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