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बीकानेरी चौखला ऊन के बिना कालीन की चमक फीकी, डिमांड विदेशों तक

मरुप्रदेश की वनस्पतियाें और वातावरण ने चमकाया : गलीचा उद्योग को दी खास पहचान  

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बीकानेरी चौखला ऊन के बिना कालीन की चमक फीकी, डिमांड विदेशों तक

बीकानेरी चौखला ऊन के बिना कालीन की चमक फीकी, डिमांड विदेशों तक

कालीन को मजबूत बनाने के लिए उद्यमी भले ही विदेश से ऊन का धागा मंगाते हो, लेकिन जब तक इसमें बीकानेरी चौखला (वैज्ञानिक नाम मगरा) भेड़ की ऊन का मिश्रण नहीं हो जाता तब तक कालीन की चमक फीकी ही रहती है। चौखला नस्ल वाली भेड़ की ऊन से बने चमकदार कालीन की विदेशों में भी खूब डिमांड है। इस नस्ल की भेड़ की ऊन चांदी की तरह सफेद और मजबूत होती है। हालांकि अभी तक स्पष्ट रूप से यह सामने नहीं आया कि अन्य नस्लों की भेड़ों से अलग चौखला भेड़ की ऊन में इतनी चमक का कारण क्या है, लेकिन अनुसंधान के प्रारंभिक परिणामों के मुताबिक, बीकानेर की मिट्टी में उगने वाली वनस्पतियाें को खाने तथा यहां का वातावरण इस भेड़ की ऊन को चमकदार बनाता है। इस वजह से कालीन उद्योग से जुड़े उद्यमी आवश्यकतानुसार इसमें बीकानेर चौखला ऊन का उपयोग करते हैं।


इस नस्ल में कि्रयेटिन ज्यादा

बीकानेर चौखला नस्ल की ऊन चमकने का एक कारण यह भी माना गया है कि इसके बालों में कि्रयेटिन जीन उच्च स्तर पर होता है। इसके अलावा इसका रेसा भी तीस से पैंतीस माइक्रोन का होता है। इसमें मेडूलेशन ऊन में कुछ पार्ट ठोस रहता है और कुछ भाग खाली रहता है। 30 से 40 प्रतिशत मेडूलेशन कारपेट के लिए उपयाेगी होता है। वैसे कालीन बनाने में तीन तरह की ऊन का उपयोग किया जाता है।


साल में तीन बार कटाई

इस नस्ल की भेड़ की ऊन की कटाई साल में तीन बार की जाती है। इसमें चैतु कटाई (मार्च में होने वाली कटाई) की ऊन महंगी बिकती है। इसकी कीमत दो सौ से तीन सौ रुपए प्रति किलो तक होती है। यह ऊन ज्यादा सफेद होती है और पीलापन नहीं होता। यह कांटा रहित होती है। दूसरी कटाई को सावनू (जुलाई में होने वाली) कहते हैं। इसमें पीलापन होता है लेकिन कांटे नहीं होते। इसकी कीमत सौ रुपए प्रति किलोग्राम होती है। तीसरी कटाई को सीयालु कटाई कहा जाता है जो नवंबर में होती है। इस ऊन की कीमत 60 से 70 रुपए प्रति किलोग्राम होती है। इसमें कांटे और पीलापन होता है।


एक साल में सवा दो किलो

बीकानेर चौखला भेड़ एक साल में कम से कम डेढ़ किलाेग्राम और अधिकतम साढ़े तीन किलोग्राम ऊन का उत्पादन करती है। यानी एक भेड़ औसतन सवा दो किलो ऊन देती है।


भेड़ों की नौ बड़ी नस्लें

ऊन उत्पादन के लिए नौ तरह की नस्लों की भेड़ होती है। इसमें मगरा, मारवाड़ी, जैसलमेरी, मालपुरा, सोनाड़ी, पूगल, पाटनवाड़ी, खैरी तथा चौखला आदि नस्लें राजस्थान में विचरण करती है।


यहां की वनस्पति ने बनाया चमकदार
बीकानेरी चौखला नस्ल की भेड़ की ऊन का चमकदार होने का बड़ा कारण यहां की मिट्टी में होने वाली वनस्पतियां तथा वातावरण महत्वपूर्ण है। इस नस्ल की मादा भेड़ नर भेड़ से दो सौ ग्राम अधिक ऊन का उत्पादन करती है।

डॉ. आशीष चौपड़ा, वरिष्ठ वैज्ञानिक, केन्द्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान बीकानेर

कालीन को बनाती है खास

बीकानेरी चौखला भेड़ सूखी घास खाती है। साथ ही यहां का वातावरण उसके लिए लाभकारी है। इस वजह से कालीन बनाने में इस नस्ल की भेड़ की ऊन का उपयोग किया जाता है। इससे कालीन में चमक आती है।

कमल कल्ला, अध्यक्ष, राजस्थान वूलन एसोसिएशन