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अस्पतालों में लगे ऑक्सीजन प्लांट्स की अनदेखी चिंताजनक

अस्पतालों को बाहरी एजेंसियों से ऑक्सीजन सिलेंडर लेने पड़ रहे हैं

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आ ग लगने पर कुआं खोदना पुरानी कहावत है। लेकिन कुआं खोदने के बाद भी उसकी सार-संभाल नहीं की जाए तो फिर ‘सब कुछ भगवान भरोसे’ वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है। कोविड के दौरान राजस्थान के प्रमुख अस्पतालों में लगे ऑक्सीजन प्लांट्स को लेकर भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है। कोरोना महामारी ने देशभर में स्वास्थ्य सेवाओं की कड़ी परीक्षा ली थी। उस दौर में ही अस्पतालों में ऑक्सीजन प्लांट लगाने की जरूरत भी महसूस की गई थी। राजस्थान के कई अस्पतालों में ये प्लांट लगे भी, लेकिन ये समुचित काम कर रहे हैं अथवा नहीं इसे देखने वाला कोई नहीं। बीकानेर जिले को ही लें तो 11 ऑक्सीजन जनरेशन प्लांट लगाए गए थे। प्रत्येक पर लगभग पचास लाख रुपए की लागत आई। तात्कालिक रूप से ये उपयोगी भी साबित हुए। लेकिन महामारी के बाद जैसे-जैसे स्थितियां सामान्य हुईं, ये ऑक्सीजन प्लांट खुद ‘ऑक्सीजन’ से वंचित हो गए। इनमें कई तो देखभाल के अभाव में बेदम हो चुके हैं। आज बीकानेर जिले में मात्र एक प्लांट ही चालू स्थिति में है। शेष दस या तो तकनीकी खामियों से ग्रस्त हैं या रखरखाव के अभाव में बंद पड़े हैं। नतीजतन अस्पतालों को बाहरी एजेंसियों से ऑक्सीजन सिलेंडर खरीदने पड़ रहे हैं।

ये तो केवल बीकानेर का उदाहरण है। समूचे प्रदेश की पड़ताल की जाए तो अनदेखी के ऐसे कई और भी उदाहरण सामने आ सकते हैं। हैरत की बात यह है कि मरीजों का जीवन बचाने में सबसे अहम ऑक्सीजन की जरूरत से जुड़े इन संयंत्रों को लेकर जिम्मेदार बेपरवाह हैं। ऐसी जरूरतों को सिर्फ आपातकालीन निवेश मानना बड़ी भूल है। करोड़ों रुपए खर्च कर चिकित्सा सेवाओं को दुरुस्त करने के नाम पर जरूरी संयंत्र लगाने व मेडिकल उपकरणों की खरीद का काम तो खूब होता है। लेकिन इनके रखरखाव का इंतजाम न हो तो ऐसे हालात बनते देर नहीं लगती। कोविड ने आपदा प्रबंधन को लेकर जो सबक सिखाया उसे सदैव याद रखने की जरूरत है अन्यथा ऐसे हालात से फिर दो-चार होना पड़ा तो आपदा प्रबंधन के तमाम उपाय धरे रह सकते हैं।