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जब तक सांस है, सेवा करता रहूंगा… बिलासपुर सिम्स के प्रोफेसर डॉ. नीरज शिंदे का निधन, ऐसे निभाई थी अपनी भूमिका

Dr. Neeraj Shinde passed away: बिलासपुर सिम्स मेडिकल कॉलेज के सर्जरी विभाग के विभागाध्यक्ष एवं प्रोफेसर डॉ. नीरज शिंदे का नेपाल में निधन हो गया।

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डॉ. नीरज शिंदे का नेपाल में निधन (फोटो सोर्स- पत्रिका)

डॉ. नीरज शिंदे का नेपाल में निधन (फोटो सोर्स- पत्रिका)

Dr. Neeraj Shinde Passed Away: पैरालिसिस जैसी गंभीर बीमारी से जूझते हुए भी उन्होंने न अपने कदमों को रुकने दिया, न अपने संकल्प को। लड़खड़ाते हुए भी हर सुबह अस्पताल पहुँचना, ऑपरेशन थियेटर में सक्रिय रहना, मरीजों का इलाज करना और एमबीबीएस के छात्रों को पढ़ाना, यह उनकी रोज़ की दिनचर्या थी। न कोई शिकायत, न कोई विराम।

उनका समर्पण इतना गहरा था कि वे खुद ही अपना इलाज करते रहे, लेकिन दूसरों की सेवा से कभी पीछे नहीं हटे। छात्रों को सिर्फ पढ़ाया नहीं, बल्कि सेवा, सहानुभूति और इंसानियत का पाठ भी पढ़ाया। यह कहानी बिलासपुर सिम्स मेडिकल कॉलेज के सर्जरी विभाग के विभागाध्यक्ष एवं प्रोफेसर डॉ. नीरज शिंदे का है।

Dr. Neeraj Shinde Passed Away: डॉ. नीरज शिंदे का नेपाल में निधन

बिलासपुर सिम्स मेडिकल कॉलेज के सर्जरी विभाग के विभागाध्यक्ष एवं प्रोफेसर डॉ. नीरज शिंदे का नेपाल में निधन हो गया। वे कैलाश मानसरोवर की तीर्थयात्रा पर थे, जहां नेपाल के रास्ते से लौटते समय उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उन्होंने वहीं अंतिम सांस ली। उनका इस तरह असमय चला जाना चिकित्सा जगत के लिए अपूरणीय क्षति है।

डॉ. नीरज शिंदे न सिर्फ एक कुशल सर्जन और समर्पित शिक्षक थे, बल्कि वे मानव सेवा की भावना से ओतप्रोत एक प्रेरणादायी व्यक्तित्व थे। पिछले कुछ वर्षों से वे पैरालिसिस की समस्या से जूझ रहे थे। यह ऐसी स्थिति होती है जिसमें शरीर में कमजोरी और संतुलन की कमी होती है। फिर भी, उन्होंने कभी हार नहीं मानी। इलाज स्वयं करते रहे, और हिमत ऐसी कि लड़खड़ाते कदमों से भी हर दिन अस्पताल पहुंचते, ऑपरेशन करते, मरीजों को देखना और विद्यार्थियों को पढ़ाना कभी नहीं छोड़ा।

जब तक सांस है, सेवा करता रहूंगा

डॉ. शिंदे पैरालिसीस से जूझ रहे थे। इलाज भी खुद कर रहे थे, लेकिन सेवा का जज्बा ऐसा था कि लड़खड़ाते कदमों के बावजूद रोज अस्पताल मरीजों के इलाज को पहुँचते। ऑपरेशन थियेटर में मौजूद रहते, एमबीबीएस के छात्रों को पढ़ाते और मरीजों का इलाज करते। उनका कहना था ऽजब तक साँस है, सेवा करता रहूँगा।ऽ अपने छात्रों को भी वो पूरी निष्ठा और लगन से मानव सेवा की सीख देते।

प्रतिदिन 250 की ओपीडी, एमएस का भी संभाला जिम्मा

डॉ. नीरज शिंदे सिम्स की स्थापना के साथ ही यहाँ पदस्थ रहे। सिस के एकमात्र डॉक्टर जो न्यूरो से संबंधित बीमारियों का इलाज कराते थे। उनके ओपीडी में प्रतिदिन 250 से अधिक मरीज उपचार कराने के लिए पहुँचते थे। इसके अलावा प्रशासन ने इन्हें सिस अस्पताल का अधीक्षक भी बनाया था। मरीजों के उपचार के साथ प्रशासनिक ज़िमेदारी भी सँभाली। इन्होंने अपने कार्यकाल में सिस की बदहाल व्यवस्था को सुधारने के लिए भी कई कार्य किए।

वे एक डॉक्टर ही नहीं, सरलता और स्नेह की प्रतिमूर्ति थे

सिम्स मेडिकल कॉलेज के डॉ. प्रशांत निगम बताते हैं कि डॉ. नीरज शिंदे जब भी कॉलेज भवन में मिलते थे, हमेशा मुस्कुराते हुए ही संवाद करते थे। उनका असमय जाना सभी के लिए गहरा आघात है। वे न केवल एक कुशल सर्जन थे, बल्कि सरलता, सहजता और स्नेह की प्रतिमूर्ति भी थे। पैरालिसिस से जूझते हुए भी हर दिन मरीजों की सेवा करते रहे। उनके छात्र, सहकर्मी और मरीज आज सिर्फ उन्हें याद नहीं कर रहे, बल्कि उनकी कमी महसूस कर रहे हैं। अब शायद वो आवाज़ दोबारा न सुनाई दे - क्या पार्टनर? कैसा है?

उनसे जुड़ी कुछ जानकारियां

चिकित्सा व प्रशासनिक करियर

2004 में सिम्स में सेवा शुरू की, और वर्षों में सर्जरी विभाग में पदोन्नति पाई।
404 सिम्स के अधीक्षक (एमएस) भी रहे, एमबीबीएस छात्रों का मार्गदर्शन व अस्पताल प्रशासन संभाला।

न्यूरो सर्जन के रूप में विशेषज्ञ

उनके ही देखरेख में न्यूरोलॉजिकल बीमारियों से पीड़ित मरीजों का इलाज होता था। सिम्स में न्यूरो सर्जरी का एकमात्र विशेषज्ञ थे।

ओपीडी एवं रोगियों से जुड़ाव

उनकी ओपीडी में रोजाना लगभग 250 मरीज आते थे, जो उनकी सर्जरी विशेषज्ञता और लोकप्रियता का परिचायक है।

संस्थागत सुधारों की पहल

स्वास्थ्य मंत्री के निरीक्षण के बाद सिम्स कॉलेज में सुधारों का माहौल बना। उन्हीं सुधारों में डॉ. शिंदे ने अस्पताल व्यवस्थाओं को स्ट्रक्चर्ड बनाने में मदद की।

व्यक्तित्व और मानवीय गुण

वे बेहद सहज, स्नेही और मुस्कान से भरपूर स्वभाव के थे। उनका छात्रों से पूछना “क्या पार्टनर? कैसा है?” भावनात्मक जुड़ाव का प्रतीक था। इससे उनकी लोकप्रियता और मानवीय गुण की झलक मिलती है।

सेवा के बावजूद चुनौतियाँ

स्वस्थ शरीर न रहते हुए भी पैरेसिस की समस्या से जूझते हुए, हर दिन अस्पताल जाकर मरीजों को देखते, ऑपरेशन करते और छात्रों को पढ़ाते रहे। यह उनकी अदम्य इच्छाशक्ति का परिचायक था।