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न मिट्टी के अखाड़े बचे, न गुरु-शिष्य की परंपरा, कुश्ती को निगल गया तेजी से फैलता जिम कल्चर… परंपरा की हार या विकास की दिशा?

Akhada to Gym Transformation: भारत की पारंपरिक खेल संस्कृति में कुश्ती का एक अहम स्थान रहा है। यह न सिर्फ एक खेल बल्कि जीवनशैली, अनुशासन और आत्म-संयम का प्रतीक था। मिट्टी में पसीना बहाते हुए अखाड़ों में अभ्यास करते पहलवानों की छवि कभी हर गांव की पहचान हुआ करती थी।

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अखाड़े से जिम तक का परिवर्तन (फोटो सोर्स- पत्रिका)

अखाड़े से जिम तक का परिवर्तन (फोटो सोर्स- पत्रिका)

Akhada to Gym Transformation: भारत की धरती पर सदियों से कुश्ती न केवल एक खेल रही है, बल्कि जीवनशैली और आत्मानुशासन का प्रतीक भी रही है। अखाड़ों में गूंजती पहलवानों की हुंकार, मिट्टी में लोटती देह, और गुरु-शिष्य परंपरा की गरिमा – यह सब भारतीय सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न हिस्सा था। लेकिन अब धीरे-धीरे ये दृश्य इतिहास की किताबों और फिल्मों तक सीमित होते जा रहे हैं।

आज के युवा ‘फिटनेस’ को सिक्स पैक एब्स और मिरर सेल्फी तक सीमित कर चुके हैं। पहले जहां गुरु-शिष्य परंपरा के साथ सामूहिक अभ्यास होता था, वहीं अब हर कोई मशीनी उपकरणों के सहारे अकेले पसीना बहाता है। अखाड़ों में नैतिक शिक्षा, ब्रह्मचर्य और त्याग की भावना गढ़ी जाती थी, जबकि जिम में बाहरी सौंदर्य और दिखावे को अधिक महत्व दिया जाता है। नतीजा यह है कि अखाड़े वीरान होते जा रहे हैं और कुश्ती के द्रोणाचार्य गुमनामी में खोते जा रहे हैं।

'छत्तीसगढ़ केसरी' बनने के सपने दम

कभी दांव-पेंच की धूल उड़ती थी, पहलवानों की हुंकार से अखाड़े कांपते थे और मिट्टी में पसीना बहाना गौरव की बात मानी जाती थी। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में कुश्ती सिर्फ खेल नहीं, एक परंपरा थी – मिट्टी से जुड़ी वह विरासत, जिसे पीढ़ियों तक संभाला गया। लेकिन आज वही परंपरा सिर्फ़ स्मृतियों और रस्मअदायगी तक सिमटकर रह गई है।

बिलासपुर में कभी गूंजने वाले 'छत्तीसगढ़ केसरी' बनने के सपने आज दम तोड़ रहे हैं। न अखाड़े बचे हैं, न गुरु, न ही वो अनुशासन और तप जो किसी पहलवान की पहचान होते थे।

रस्म बनकर रह गया है अखाड़ा आयोजन

बजरंग अखाड़े से जुड़े महेश दुबे ‘टाटा’ बताते हैं कि अब साल में केवल एक दिन नागपंचमी पर लालबहादुर शास्त्री स्कूल मैदान में प्रतीकात्मक रूप से कुश्ती का आयोजन किया जाता है, वह भी सिर्फ परंपरा निभाने के लिए। एक समय गोड़पारा का बजरंग अखाड़ा बिलासपुर का प्रमुख अखाड़ा हुआ करता था, जहाँ पहलवानी की गूंज सुनाई देती थी, पर आज वह भी एक मॉडर्न जिम में तब्दील हो चुका है।

मिट्टी के दांव खोए, मशीनों की खड़खड़ाहट हावी

कभी धोबी पछाड़, चिरागदान, डबल टांग जैसे दांव हवा में उड़ते थे, अब वहां डेडलिफ्ट, बेंच प्रेस और लेग डे जैसे शब्द गूंजते हैं। मल्लखंभ, लाठी, दंड-बैठक, चक्रसंचालन जैसे व्यायामों की जगह अब बॉडीबिल्डिंग की शब्दावली ने ले ली है। युवाओं का आकर्षण अब मिट्टी की तपस्या में नहीं, मिरर के सामने खड़े होकर ‘फिजिक चेक’ करने में है।

पारंपरिक युद्धकौशल से अंजान युवा पीढ़ी

पुराने अखाड़ों की मिट्टी, जो एक समय प्रेरणा का स्रोत थी, अब वीरान पड़ी है। वहां न कोई पहलवान आता है, न कोई गुरु। कला जंघ, मोरपंख, सालतू, लंगड़ी ढेकली, उखाड़ और एक लंगा जैसे दांव अब युवा सुनते तक नहीं हैं। एक पूरी पीढ़ी है जो इन पारंपरिक युद्धकौशल से अंजान है। छत्तीसगढ़ की पारंपरिक कुश्ती की विरासत अब अंतिम सांसें गिन रही हैं। पहलवानों को न अभ्यास करने की जगह बची, न तो जरूरी संसाधन मिलते हैं और न ही मंच।

बजरंगबली अखाड़ा योजना केवल घोषणाओं में

सरकारी स्तर पर अखाड़ा प्रोत्साहन योजना और स्पोर्ट्स ट्रेनिंग सेंटर जैसी घोषणाएं तो होती हैं, मगर जमीनी हकीकत कुछ और ही है। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने 2023 में छत्तीसगढ़ राज्य में अखाड़ों के संरक्षण और संवर्धन के साथ ही पहलवानों की प्रतिभाओं को निखारने के लिए बजरंगबली अखाड़ा प्रोत्साहन योजना आरंभ करने की घोषणा की थी। इस योजना के पीछे उद्देश्य था कि कुश्ती जैसे पारंपरिक खेलों का सुंदर वातावरण पुन: तैयार किया जाए और प्रतिभाओं को राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहुंचाया जाए, लेकिन यह योजना अब तक केवल कागजों तक ही सीमित रह गई है।

आज जरूरत है पारंपरिक कुश्ती को फिर से पहचान दिलाने की

आज जरूरत है पारंपरिक कुश्ती को फिर से पहचान दिलाने की। यह केवल एक खेल नहीं, हमारी सांस्कृतिक विरासत है। मशीनों से शरीर तो बन सकता है, लेकिन आत्मबल, अनुशासन और परंपरा केवल मिट्टी के अखाड़ों से ही जन्म लेती है। अगर अब भी समय रहते हम नहीं जागे, तो अगली पीढ़ी कुश्ती को केवल फिल्मों और किताबों में पढ़ेगी – और हमारी मिट्टी की ताकत हमेशा के लिए खो जाएगी।


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