
Pandit Jasraj के सुर दुनियाभर में गूंजे और सौरमंडल तक पहुंचे
-दिनेश ठाकुर
पिछले साल 23 सितम्बर को इंटरनेशल एस्ट्रोनोमिकल यूनियन (आइएयू) ने मंगल और वृहस्पति के बीच एक छोटे-से ग्रह का नाम जब मूधन्र्य संगीतकार पंडित जसराज के नाम पर रखा था तो भारतीय शास्त्रीय संगीत की गूंज जैसे सौरमंडल तक बिखर गई। इस ग्रह का क्रमांक पंडित जसराज की जन्म तिथि 28 जनवरी, 1930 के आधार पर 30.1.28 रखा गया। वे पहले भारतीय संगीतकार थे, जिन्हें यह अंतरराष्ट्रीय गौरव मिला। तब किसने कल्पना की थी कि अपने गायन से सारी दुनिया को सुरीला बनाने वाले पंडित जसराज इस उल्लेखनीय घटनाक्रम का एक साल पूरा होने से पहले दुनिया छोड़ जाएंगे। सोमवार को न्यू जर्सी (अमरीका) में दिल के दौरे से उनके देहांत के साथ भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक जगमगाती मशाल बुझ गई, जो आठ दशक तक संगीत के फलक पर जगमगाती रही।
पंडित भीमसेन जोशी अगर अपने घन-गरज वाले गायन और कुमार गंधर्व जादुई तानों के लिए मशहूर थे तो पंडित जसराज के गायन में हवेली संगीत की ऐसी गूंज थी, जो सुनने वालों के दिलों से होकर रूह तक पहुंचती थी। वे संगीत के मेवाती घराने के रोशन चिराग थे। इस घराने के घघ्घे नजीर खान, नत्थूलाल, मोतीराम और मणिराम से होते हुए जो धारा पंडित जसराज तक पहुंची, उनके कंठ और सूझबूझ से धन्य हो गई। घराने की चौखटों से निकल कर उन्होंने शास्त्रीय संगीत का श्रृंगार लोक संगीत से भी किया। इसीलिए चाहे वे ठुमरी गाएं, भजन या कोई और सुगम रचना, सुनने वालों का मन मोह लेते थे। वे गाते हुए भी सृजन करते थे। सृजन की पीड़ा और आनंद में सुनने वालों को भी शामिल कर लेते थे। कुमार गंधर्व के बारे में कहा जाता है कि जब वे आंखें बंद कर गाते थे तो उन्हें सुर दिखाई देते थे। पंडित जसराज को शायद उसी तरह भगवान कृष्ण दिखाई देते होंगे। एक बार उन्होंने कहा भी था कि कृष्ण सपनों में आकर उन्हें गाने के लिए कहते हैं। उनकी 'गोविंदम् गोकुलनंदम्' या 'गोविंद दामोदर माधवेति' या 'मेरो अल्लाह मेहरबान' सुनकर महसूस भी होता है कि कोई अदृश्य शक्ति उन्हें प्रेरणा देती थी, सुरों में डूबकर आगे बढऩे का रास्ता दिखाती थी।
गायन सीखने तक बाल नहीं कटवाने का प्रण लिया था
हरियाणा में 28 जनवरी, 1930 को जन्मे पंडित जसराज का संगीत रियाज से नहीं, साधना से उपजा और पल्लवित हुआ। उनके बड़े भाई मणिराम को उस्ताद फैयाज खान की टक्कर का गायक माना जाता था। पंडित जसराज कभी सितार-सम्राट पंडित रविशंकर के साथ तबला बजाया करते थे।एक बार लाहौर में (तब देश का विभाजन नहीं हुआ था) वे कुमार गंधर्व के साथ तबले पर संगत कर रहे थे। कुमार गंधर्व राग भीमपलासी पर रचना गा रहे थे। वहां पंडित अमरनाथ से पंडित जसराज की खटपट हो गई। तब संगीत सभाओं में पंडित अमरनाथ अपेक्षाकृत बड़ा नाम था। उन्होंने पंडित जसराज को झाड़ते हुए कहा- 'तुम मरा हुआ चमड़ा पीटते हो। तुम राग के बारे में क्या जानते हो।' यह जुमला पंडित जसराज को तीर की तरह चुभा। उन्होंने प्रण किया कि जब तक गायन नहीं सीख लेते, बाल नहीं कटवाएंगे। छह साल तक वे गायन की साधना में जुटे रहे। बाद में इस गायन ने कैसे-कैसे जादू जगाए, सारी दुनिया जानती है।
'जसरंगी' जुगलबंदी
पंडित जसराज का एक बड़ा योगदान यह भी है कि उन्होंने हवेली संगीत को लुप्त नहीं होने दिया। हवेली में सूरदास जैसे अष्टछाप कवियों की रचनाएं गाई जाती हैं। पंडित जसराज से पहले जयपुर अतरौली घराने के अल्लादिया खान का हवेली संगीत में बड़ा नाम था। पंडित जसराज ने 'जसरंगी' नाम से जुगलबंदी की नई शैली विकसित की। प्राचीन गायन शैली 'मूर्छना' से प्रेरित इस जुगलबंदी में महिला और पुरुष गायक अलग-अलग राग में गायन पेश करते हैं। उन्होंने अबीर तोड़ी और पटदीपकी जैसे दुर्लभ रागों को भी लोकप्रिय बनाया।
समय के बंधन से परे
पंडित जसराज ने कुछ फिल्मों के लिए भी गायन किया, लेकिन उनके मन को सुकून शास्त्रीय संगीत ही देता था। देश-विदेश में उनके सैकड़ों कंसर्ट संगीत की अमूल्य धरोहर हैं। उनका पहला कंसर्ट 1952 में काठमांडू में नेपाल के तत्कालीन नरेश त्रिभुवन वीर विक्रम शाह के दरबार में हुआ था। जयपुर के गोविंददेव जी मंदिर में भी उनके सत्संग हुए। फिल्मकार वी. शांताराम की पुत्री मधुरा से शादी के बाद 1963 में वे कोलकाता छोड़कर मुम्बई में बस गए थे। उनके पुत्र शारंग देव संगीत में, जबकि पुत्री दुर्गा जसराज अभिनय में सक्रिय हैं। पंडित जसराज उम्रभर भविष्य को ध्यान में रखकर अपनी कला को आकार देते रहे। उनका गायन समय के बंधन से परे था, जो रहती दुनिया तक पीढिय़ों का मार्गदर्शन करता रहेगा।
Updated on:
18 Aug 2020 11:51 pm
Published on:
18 Aug 2020 11:50 pm
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