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हालात से जूझ रहे हैं ‘इक प्यार का नगमा है’ जैसे कालजयी गीत रचने वाले Santosh Anand

० टीवी शो में शिरकत के दौरान दशा देखकर नम हुईं कई आंखें० कई साल से वक्त घुमा रहा है व्हीलचेयर पर, आर्थिक तंगी से बेहाल० कुछ साल पहले जवान बेटे-बहू की आत्महत्या ने अंदर तक तोड़ दिया था

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-दिनेश ठाकुर
मनोज कुमार की 'संतोष' में संतोष आनंद का गीत था- 'कहकहों के लिए हम तो मशहूर थे/ देखते-देखते गमजदा हो गए/ बात कुछ भी नहीं, बात है भी बहुत/ तुम जुदा हो गए, हम जुदा हो गए।' यह मिसरे अब उनकी जिंदगी की हकीकत बन गए हैं। संतोष और आनंद के झरने उनसे कटकर बहते हैं। उम्र के 81वें पड़ाव पर उन्हें दुख-दर्द, लाचारी और आर्थिक अभावों ने घेर रखा है। 'इक प्यार का नगमा है', 'मैं न भूलूंगा', 'ये गलियां ये चौबारा, यहां आना न दोबारा' और 'जिंदगी की न टूटे लड़ी' जैसे कालजयी गीत रचने वाले इस गीतकार के लिए गोया सुख-चैन की तमाम लडिय़ां बिखर गई हैं। कभी वह कवि सम्मेलनों की शान हुआ करते थे। कई साल से वक्त उन्हें व्हीलचेयर पर घुमा रहा है।

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तेरा साथ है तो मुझे क्या कमी है..
संतोष आनंद को हाल ही मुम्बई में एक टीवी शो में शिरकत के लिए लाया गया, तो उनकी दशा देखकर कइयों की आंखें भीग गईं। क्या ये वही संतोष आनंद हैं, जिन्होंने किसी जमाने में 'पुरवा सुहानी आई रे' के जरिए हमें हवाओं की गुनगुनाहट सुनना सिखाया था। जिनके 'मोहब्बत है क्या चीज' ने दिलों पर रूमानी रंग छिड़के थे। जो 'मेघा रे मेघा रे मत परदेस जा रे' रचकर आंखों में हरी-भरी वादियां उतार देते थे। जिनका 'तेरा साथ है तो मुझे क्या कमी है' सुनकर लोग अंधेरों में भी रोशनी महसूस करते थे।


कवि सम्मेलनों में सुनाते थे नए अंतरे
संतोष आनंद ने फिल्मों के लिए जितने गीत रचे, वे शैली, भाव और लालित्य के लिहाज से अलग रंग में ढले हैं। ऐसा रंग, जो संतोष आनंद का अपना है। 'इक प्यार का नगमा है' के हर मिसरे में यह रंग पुरअसर तरीके से छलका है। कवि सम्मेलनों में वह इस गीत के उन अंतरों को भी सुनाया करते थे, जो फिल्म (शोर) में नहीं हैं। ऐसा ही एक अंतरा है- 'तुम साथ न दो मेरा, चलना मुझे आता है/ हर आग से वाकिफ हूं, जलना मुझे आता है/ तदबीर के हाथों से, तकदीर बनानी है/ जिंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है।'

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आंच नहीं आने दी स्वाभिमान पर
फिल्मों में गीतकार बने रहना और स्वाभिमान के साथ जीना दो अलग-अलग बातें हैं। संतोष आनंद उन चंद गीतकारों में से हैं, जिन्होंने फिल्मों के लिए कलम चलाते हुए स्वाभिमान पर आंच नहीं आने दी। इस कलम के कद्रदानों में राज कपूर भी शामिल थे। मनोज कुमार तो संतोष आनंद की रचनाओं से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने 1989 में 'संतोष' नाम की फिल्म बनाई। इसके सात में से छह गीत संतोष आनंद ने लिखे। उनके गीतों की लोकप्रियता ने इस दलील को खारिज किया कि फिल्मों में हिन्दी शब्दावली वाले गीत नहीं चलते। उन्होंने 100 से ज्यादा फिल्मी गीत रचे। 'रोटी, कपड़ा और मकान' तथा 'प्रेम रोग' के गीतों के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड से नवाजे गए।


पर्वत-सी हो गई पीर
वक्त की बलिहारी है। संतोष आनंद की कहानी त्रासद घटनाओं का जाल बनकर रह गई है। कुछ साल पहले जवान बेटे-बहू की आत्महत्या ने उन्हें अंदर तक तोड़ दिया था। अब आर्थिक तंगी तोड़ रही है। आमदनी के रास्ते बंद हो जाने से उनकी पीर पर्वत-सी हो गई है। यहां से गंगा निकलने के आसार धूमिल होते जा रहे हैं। कभी उनके गीतों से मालामाल होने वाला हिन्दी सिनेमा उन्हें भुला चुका है। उनके गीत 'और नहीं बस और नहीं' (रोटी, कपड़ा और मकान) के मिसरे याद आते हैं- 'सच्चाई का मोल नहीं, चुप हो जा कुछ बोल नहीं/ प्यार-प्रीत चिल्लाएगा तो अपना गला गंवाएगा।'