
ये हैं वे लेखक और गीतकार जिन्होंने सिनेमा में जमाई कलम की धाक
-दिनेश ठाकुर
मेहदी हसन की आवाज में आले-रजा की खासी लोकप्रिय गजल का मिसरा है- 'जो चाहते हो सो कहते हो, चुप रहने की लज्जत क्या जानो।' इसमें बोलने के बारे में अलग फलसफा है। जावेद अख्तर इससे अलग फैज अहमद फैज की नज्म 'बोल कि लब आजाद हैं तेरे' के फलसफे पर अमल करते हैं। वे हर मुद्दे, हर मसले, हर मामले पर बोलते हैं। बोलने में कोई रियायत नहीं करते। लॉकडाउन के दौरान जब सब कुछ बंद था, तब भी वे बोल रहे थे या यूं कहिए कि पहले से ज्यादा बोल रहे थे। गोया दिनकर के मिसरे 'जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध' को उन्होंने अपना मंत्र बना रखा है। उनके कट्टर आलोचक उन्हें बार-बार घेरते हैं। उनके बोलने की धार और रफ्तार कम नहीं होती। उनके बोलने में वही बेबाकी है, जो उनके फिल्मी लेखन में और उनकी शायरी में महसूस होती है। 'तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना', 'ये दिल और उनकी निगाहों के साए' और 'ए दिले-नादां' जैसे सदाबहार गीत लिखने वाले अपने पिता जां निसार अख्तर से उनका मिजाज एकदम अलग है। पिता फिल्म इंडस्ट्री में उपेक्षा का शिकार रहे। जावेद अख्तर ने सलीम खान के साथ मिलकर इसी इंडस्ट्री को कलम का सम्मान करना सिखाया।
बॉलीवुड में सलीम-जावेद के उदय से पहले लेखकों की हैसियत मुंशी जैसी थी। कई फिल्मी सेठ तो उन्हें मुंशी ही कहते थे। उनके लिखे संवाद ऐन वक्त पर बदल दिए जाते थे। कहानी को तोड़ा-मरोड़ा जाता था। चू-चपड़ करने पर फिल्म की प्रचार सामग्री से लेखक का नाम गायब हो जाता था। सलीम-जावेद ने इस परिपाटी को पूरी तरह बदल दिया। उनकी लिखी हुई 'जंजीर' को जब सिनेमाघरों में उतारने की तैयारियां चल रही थीं तो उन्होंने पाया कि फिल्म के पोस्टर्स-बैनर्स पर उनके नाम नहीं हैं। पूछने पर बताया गया कि इन पर लेखकों के नाम देने की परम्परा नहीं है। इससे गुस्साए जावेद अख्तर ने दो जीपें किराए पर लीं, चार मजदूरों को साथ लिया और पूरी मुम्बई में जहां-जहां 'जंजीर' के पोस्टर लगे थे, उन पर 'लेखक : सलीम-जावेद' का स्टीकर चिपका दिया। मेहनताने को लेकर भी इसी जोड़ी ने नई परम्परा की शुरुआत की। उस दौर में लेखकों को हीरो-हीरोइन के मेहनताने का आधा भी नहीं मिलता था। 'दीवार' के बाद फिल्मी सेठों को इस जोड़ी की यह शर्त माननी पड़ी कि उन्हें फिल्म के नायक के बराबर मेहनताना दिया जाएगा।
जाहिर है, जावेद अख्तर का बोलना उनकी जुझारू फितरत का हिस्सा है। फितरत में यह बैचेनी उनके हिस्से में आती है, जो प्रतिकूल हालात को बदलना चाहते हैं। जावेद अख्तर ने अपनी किताब 'तरकश' में लिखा है- 'मैं जितना कर सकता हूं, उसका एक चौथाई भी अब तक नहीं किया और इस ख्याल की दी हुई बेचैनी जाती नहीं।'
Published on:
09 Jun 2020 08:17 pm
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