ममता की मूरत, तो बदलाव की सूरत भी
आजादी से पहले की सामाजिक परिस्थितियों का फिल्मों में मां की भूमिकाओं पर भी गहरा असर पड़ा। तंगहाली से जूझते परिवार को संबल देने वाली मां से लेकर अपने बच्चों के लिए समाज से टकरा जाने वाली मां की भूमिकाओं ने ‘मुगले आजम’, ‘औरत’ और ‘मदर इंडिया’ जैसी सशक्त भूमिकाओं वाली फिल्में दीं। 60 और 70 के दशक में मातृत्व की इस छाया को पर्दे पर और गहराई से उतारा गया। वर्तमान में ‘3 इडियट्स’ में राजू रस्तोगी की मां बनीं अमरदीप झा, ‘बाहुबली’ की शिवगामी रमैया, ‘शुभ मंगल सावधान’ और ‘बाला’ में आयुष्मान की माँ बनी सुनीता राजवर, और ‘मॉम’ में बेटी के रेपिस्ट से बदला लेने वाली श्रीदेवी हों या आइकॉॅनिक ‘बधाई हो’ की प्रौढ़ावस्था में गर्र्भवती होने वाली नीना गुप्ता, सभी ने समाज के दकियानूसी कानूनों पर उंगली उठाने का साहस किया है।
कहानी के समानांतर लिखे जा रहे रोल
शुरुआती दौैर की ज्यादातर फिल्मों में, मां की भूमिका को सपोर्टिंग रोल तक ही सीमित रखा जाता था। कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो, मां की भूमिका अक्सर बहुत टाइपकास्ट हुआ करती थी। लेकिन बदलते दौर के साथ मां के रोल भी कहानी के समानांतर महत्त्वपूर्ण हो गए हैं। कहानियां भी खास इन्हीं ‘क्रांतिकारी’ विचारों वाली मांओं को ध्यान में रखकर लिखी जा रही हैं। शीबा चड्ढा, सीमा पाहवा, सुनीता राजवर, सुप्रिया पाठक, रसिका दुगल, शेफाली शाह, टिस्का चोपड़ा और विद्या बालन ने सिनेमाई मां की नर्ई परिभाषा गढ़ी है। मां की भूमिका अब पहले से ज्यादा सशक्त, प्रतिक्रिया देने वाली और नई सोच से लबरेज है।