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हीरो के रोल करने वाले जगदीप कैसे बन गए ‘सूरमा भोपाली’, जानें पूरा फिल्मी सफर

locationमुंबईPublished: Jul 10, 2020 08:40:43 pm

हिन्दी सिनेमा का दुर्भाग्य रहा है कि यहां हास्य अभिनेताओं के किरदार लिखने पर उस तरह मेहनत नहीं की जाती, जिस तरह नायक, नायिका और खलनायक के किरदारों पर की जाती है। महमूद ने एक बार कहा भी था- ‘निर्देशक और कहानीकार को हास्य की समझ नहीं होने के कारण वे सब कुछ हम पर छोड़ देते हैं और हमारी समझ में जो आता है, हम कर देते हैं।’

हीरो के रोल करने वाले जगदीप कैसे बन गए 'सूरमा भोपाली', जानें पूरा फिल्मी सफर

हीरो के रोल करने वाले जगदीप कैसे बन गए ‘सूरमा भोपाली’, जानें पूरा फिल्मी सफर

-दिनेश ठाकुर

तमिल फिल्म ‘कुलदैवम’ के हिन्दी रीमेक ‘भाभी’ (1957) में जगदीप पर एक भावपूर्ण गीत फिल्माया गया था- ‘चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना।’ इसी फिल्म में नंदा के साथ उन पर फिल्माया गया ‘चली चली रे पतंग मेरी चली रे’ भी सदाबहार गीत है। ‘भाभी’ के अलावा अपने कॅरियर के शुरुआती दौर में जगदीप कुछ और फिल्मों में बतौर नायक नजर आए। ‘पास बैठो तबीयत बहल जाएगी’ (पुनर्मिलन), ‘वो दूर जो नदिया बहती है’ (बरखा), ‘ख्वाब में कहां मिलोगे’ (बिंदिया) जैसे कुछ और सदाबहार गीत उनके नाम के साथ जुड़े। उसी दौर में राज कपूर की ‘अब दिल्ली दूर नहीं’, गुरुदत्त की ‘आर-पार’, बिमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’, ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘मुन्ना’ और एवीएम की ‘हम पंछी एक डाल के’ में उनके अभिनय के विविध रंग नजर आए। बाद में हास्य भूमिकाओं में उन्होंने जुमलों को खींच-खींच कर और घुमा-घुमा कर बोलने की जो शैली विकसित की, सूरमा भोपाली (शोले) का किरदार उसका चरम था। इस किरदार ने उन्हें बेहिसाब लोकप्रियता जरूर दी, आगे कुछ नया कर दिखाने के रास्ते सीमित कर दिए। ‘शोले’ के बाद वे ज्यादातर फिल्मों में सूरमा भोपाली को ही दोहराते रहे। वे खुद इस किरदार पर इतने मुग्ध थे कि 1988 में उन्होंने निर्देशक-अभिनेता के तौर पर ‘सूरमा भोपाली’ नाम की फिल्म ही बना दी। धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन और रेखा जैसे नाम जुड़े होने के बावजूद यह फिल्म नहीं चली।
हिन्दी सिनेमा का दुर्भाग्य रहा है कि यहां हास्य अभिनेताओं के किरदार लिखने पर उस तरह मेहनत नहीं की जाती, जिस तरह नायक, नायिका और खलनायक के किरदारों पर की जाती है। महमूद ने एक बार कहा भी था- ‘निर्देशक और कहानीकार को हास्य की समझ नहीं होने के कारण वे सब कुछ हम पर छोड़ देते हैं और हमारी समझ में जो आता है, हम कर देते हैं।’ इसीलिए जगदीप, राजेंद्रनाथ, पेंटल, मुकरी, मोहन चोटी, केश्टो मुखर्जी, जॉनी लीवर जैसे अभिनेता फिल्म-दर-फिल्म हास्य के एक जैसे दायरे में घूमते रहे। चार्ली चैप्लिन, लॉरेल-हार्डी, बॉब हॉप, पीटर सेलर्स और मेल ब्रुक्स जैसी बुलंदी इनमें से किसी के हिस्से में नहीं आई।

नाटकों के मुकाबले कहीं अधिक जीवंत माध्यम होने के बावजूद ज्यादातर फिल्मों में हास्य को कहानी का हिस्सा नहीं बनाया गया। बीच-बीच में दर्शकों को हंसाने के लिए हास्य को पैबंद के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा। ऐसे प्रतिकूल माहौल में भी जगदीप दर्शकों को हंसी और ठहाकों की खुराक दे पाए, यही उनकी बड़ी उपलब्धि है।
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