लद्दाख को पश्चिमी आंधी ने अब तक उस तरह गिरफ्त में नहीं लिया है, जैसा देश के दूसरे हिस्सों में काफी पहले हो चुका है। लद्दाख के लोग आज भी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े हुए हैं। परिवार नाम की संस्था के प्रति वहां सम्मान का भाव कायम है। हिन्दी फिल्में कभी लद्दाख में काफी लोकप्रिय थीं, लेकिन जैसे-जैसे इनमें हिंसा, अश्लीलता और संयुक्त परिवार के बदले एकल परिवार की थीम का सिलसिला बढ़ा, इनकी लोकप्रियता का ग्राफ गिरने लगा। इन फिल्मों के प्रति विरक्ति ने लद्दाख के लोगों को अपनी अलग क्षेत्रीय फिल्म इंडस्ट्री कायम करने के लिए प्रेरित किया। यह इंडस्ट्री अब तक तीन दर्जन से ज्यादा फिल्में बना चुकी है। इनमें से ज्यादातर कामयाब रहीं। फिल्में बोधि और बाल्टी (दोनों तिब्बती भाषाएं हैं) के साथ-साथ हिन्दी-अंग्रेजी में भी बनती हैं। धर्म, संस्कृति, परिवार और प्रकृति लद्दाखी फिल्मकारों के पसंदीदा विषय हैं। फिल्म बनाते समय उन्हें अतिरिक्त सावधानी बरतनी पड़ती है कि पर्दे पर ऐसा कुछ नहीं दिखाना है, जो लद्दाख के लोगों की भावनाओं के अनुरूप न हो। सेंसर बोर्ड की तर्ज पर वहां फिल्म को सिनेमाघर में उतारने से पहले बौद्ध एसोसिएशन को दिखाना होता है। फिल्म में लद्दाख की संस्कृति और परंपराओं के खिलाफ कुछ भी पाए जाने पर एसोसिएशन की कैंची चल जाती है। एक फिल्म में एक लामा किसी महिला का सपना देखते नजर आया था। यह सीन फिल्म से हटा दिया गया। ‘मुन्नी बदनाम हुई’, ‘बाबूजी जरा धीरे चलो’ या ‘शीला की जवानी’ जैसी तड़क-भड़क की तो वहां कोई गुंजाइश ही नहीं है।
लद्दाख की खूबसूरत वादियां हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री को भी लुभाती रही हैं। ‘थ्री इडियट्स’, ‘जब तक है जान’, ‘लक्ष्य’, ‘एलओसी कारगिल’, ‘दिल से’ और ‘भाग मिलखा भाग’ समेत कई हिन्दी फिल्मों की शूटिंग लद्दाख में की गई। दिलचस्प तथ्य यह है कि लेह में, जहां हर गली-मोहल्ले में स्तूप (छोटे मंदिर) और ‘प्रेयर व्हील’ (प्रार्थना चक्र) हैं, सिनेमाघर सिर्फ एक है, जो करीब 2.8 लाख लद्दाखियों को मनोरंजन की खुराक देता है। लद्दाखी फिल्मों में मनोरंजन और मुनाफे का अलग हिसाब-किताब है। वहां कुछ फिल्में सिर्फ लोगों को शिक्षित करने या कोई संदेश उन तक पहुंचाने के लिए बनाई जाती हैं।