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सेंसर बोर्ड के नए अध्यक्ष का इंतजार, Madhur Bhandarkar के नाम पर विचार

locationमुंबईPublished: Oct 23, 2020 01:55:50 pm

हृषिकेश मुखर्जी के बाद शक्ति सामंत, आशा पारेख, विजय आनंद, शर्मिला टैगोर, लीला सेमसन और पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष रह चुके हैं। आशा पारेख के अध्यक्ष काल में ‘बैंडिट क्वीन’ को लेकर शेखर कपूर और सेंसर बोर्ड ( Censor Board ) में काफी विवाद हुआ था।

Madhur Bhandarkar may be new chief of Censor Board

Madhur Bhandarkar may be new chief of Censor Board

-दिनेश ठाकुर
फिल्म एवं टीवी इंस्टीट्यूट की कमान शेखर कपूर ( Shekhar Kapur ) को सौंपे जाने के बाद अब फिल्म वालों को सेंसर बोर्ड ( Censor Board ) के नए अध्यक्ष का इंतजार है। अगस्त 2017 से यह पद संभाल रहे प्रसून जोशी ( Prasoon Joshi ) का कार्यकाल इस साल अगस्त में पूरा हो चुका है। केंद्र सरकार किसी भी समय नए अध्यक्ष का ऐलान कर सकती है। संकेत हैं कि ‘चांदनी बार’, ‘फैशन’ और ‘हीरोइन’ के फिल्मकार मधुर भंडारकर ( Madhur Bhandarkar ) के नाम पर विचार किया जा रहा है।

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…तो कई फिल्में सर्टिफिकेट को तरस जातीं

भारतीय सेंसर बोर्ड 69 साल बाद भी उन उद्देश्यों पर पूरी तरह खरा नहीं उतरा है, जिनको लेकर इसका गठन किया गया था। बोर्ड 1952 के सिनेमाटोग्राफ एक्ट (इसमें समय-समय पर संशोधन होते रहे हैं) के तहत फिल्मों की जांच-परख कर सिनेमाघरों में उतारने का सर्टिफिकेट जारी करता है। इस एक्ट के कुछ खास नियम हैं- समाज विरोधी गतिविधियों (हिंसा आदि) को प्रतिष्ठित या वाजिब नहीं ठहराया जाए, अपराध के ऐसे सीन या ब्योरे नहीं रखे जाएं, जो अपराध के लिए प्रेरित करें, हिंसा या क्रूरता या भय के सीन से बचा जाए, अश्लीलता और अभद्रता को बढ़ावा नहीं दिया जाए। जाहिर है, अगर सेंसर बोर्ड ने इन नियमों का सख्ती से पालन किया होता, तो कई फिल्में सर्टिफिकेट को तरस जातीं। न ‘बैंडिट क्वीन’ सिनेमाघरों में पहुंचती, न ‘मर्डर’ और न ही ‘हाउसफुल’।

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कम दहाडऩे वाला शेर बन गया है सेंसर बोर्ड

अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर फिल्म वालों और सेंसर बोर्ड के बीच किसी जमाने में काफी तनातनी चलती थी। कुछ मामलों में बोर्ड को अदालत के चक्कर भी कटवाए गए। इसीलिए पिछले कई साल से यह सरकारी संस्था ऐसे शेर में तब्दील हो गई है, जो दहाडऩे का अधिकार होने के बाद भी दहाडऩे से बचती है। ‘अपना टाइम आएगा’ (गली बॉय) में आपत्तिजनक शब्द को सुनकर भी वह अनसुना कर देती है। अगर कभी बोर्ड को अपने अधिकार याद भी आते हैं, तो वह ‘लव आजकल 2’ में सारा अली खान और कार्तिक के अंतरंग सीन पर कैंची चलाने से ज्यादा आगे नहीं जाता।

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पहले नौकरशाह सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष बनाए जाते थे, तो फिल्म वालों की शिकायत रहती थी कि उनकी फिल्मों को ऐसे लोग जांचते-परखते हैं, जो सिनेमा माध्यम के बारे में कुछ नहीं जानते। सरकार ने 1981 में पहली बार फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी को बोर्ड का अध्यक्ष बनाकर यह पद फिल्म वालों के लिए खोल दिया। इस व्यवस्था से फिल्म वाले तो खुश हैं, लेकिन नियमों का पालन हाशिए पर चला गया है।

सेंसर बोर्ड में विवाद

हृषिकेश मुखर्जी के बाद शक्ति सामंत, आशा पारेख, विजय आनंद, शर्मिला टैगोर, लीला सेमसन और पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष रह चुके हैं। आशा पारेख के अध्यक्ष काल में ‘बैंडिट क्वीन’ को लेकर शेखर कपूर और सेंसर बोर्ड में काफी विवाद हुआ था। मजेदार बात है कि हॉलीवुड की फिल्मों को जांचते-परखते समय सेंसर की कैंची की धार जितनी तेज रहती है, भारतीय फिल्मों के मामले में उतनी ही कुंद हो जाती है। पहलाज निहलानी जब अध्यक्ष थे, हॉलीवुड की जेम्स बॉन्ड सीरीज की ‘स्पेक्टर’ के चुंबन दृश्य काट दिए गए थे। इससे पहले अरविंद त्रिवेदी के अध्यक्ष काल में अनुराग बसु की ‘मर्डर’ में इसी तरह के सीन आराम से पास कर दिए गए। कई भोजपुरी फिल्मों को देखकर तो लगता है कि सेंसर बोर्ड ने इन्हें देखे बगैर पास कर दिया।

जब फिल्मों पर चली ‘तीखी कैंची’

ऐसी फिल्में गिनती की हैं, जो सेंसर बोर्ड के कड़े रुख के कारण सिनेमाघरों में नहीं पहुंच सकीं। अनुराग कश्यप की ‘पांच’ में जरूरत से ज्यादा हिंसा और नशाखोरी के सीन होने के कारण इतनी काट-छांट की गई कि यह फीचर फिल्म के बजाय शार्ट फिल्म जैसी हो गई। मलयालम की ‘द पेंटेड हाउस’ (2015) को इसलिए सेंसर सर्टिफिकेट देने ने इनकार कर दिया गया कि इसमें एक वृद्ध और युवा लड़की के रिश्तों की कहानी थी। इसी तरह यशराज बैनर की ‘सिन्स’ को भी सिनेमाघरों का रास्ता नहीं मिला, जिसमें एक युवती और पादरी की प्रेम कहानी थी। रूपेश पॉल की ‘कामसूत्र 3 डी’ (2013) और राज अमित कुमार की ‘अनफ्रीडम’ को अश्लील दृश्यों की भरमार के कारण सर्टिफिकेट नहीं मिला।

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