फिलहाल इसे ही सुकून का सबब माना जाए कि ‘डिसाइपल’ ने इस प्रतिष्ठित समारोह में पुख्ता ढंग से भारत की नुमाइंदगी की। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है कि दुनियाभर की फिल्मों के मुकाबले इस मराठी फिल्म को सर्वश्रेष्ठ पटकथा के अवॉर्ड से नवाजा गया। भारत में शास्त्रीय संगीत में कुछ कर गुजरने वाले नौजवानों को कैसे-कैसे विकट हालात से गुजरना पड़ता है, ‘डिसाइपल’ इसकी सही-सही तस्वीरें पेश करने की ईमानदार कोशिश है। फिल्म की कमेंट्री का एक हिस्सा है- ‘भारतीय शास्त्रीय संगीत को शाश्वत खोज का मार्ग माना जाता है। इस संगीत के जरिए हम दिव्य तक पहुंचते हैं। अगर आपको इस मार्ग पर चलना है तो अकेले और भूखा रहना सीखना होगा।’
बहरहाल, गोल्डन लॉयन अवॉर्ड जीतने वाली ‘नोमैडलैंड’ भी इक्कीसवीं सदी की दुनिया के हालात, चुनौतियों और विडम्बनाओं पर निहायत खरी फिल्म है। यह फिल्म चौंकाती भी है कि अमरीका में रहने वालीं चीनी फिल्मकार क्लो झाओ ने बड़े तल्ख अंदाज में उस अमरीका को आईने के सामने खड़ा कर दिया है, जो दुनिया को अपने विकास, ताकत और खुशहाली के गीत सुनाते नहीं थकता। ‘नोमैडलैंड’ की नायिका (फ्रांसिस मक्डोरमंड) 60 साल की विधवा है। वह अमरीका की उस आबादी का हिस्सा है, जो सड़कों के किनारे वाहनों में खानाबदोश जिंदगी गुजारने के लिए अभिशप्त हैं। बेहतर भविष्य की उम्मीद में नायिका शहर-दर-शहर भटकती रहती है, लेकिन उजाले उसके हाथ नहीं आते। यह फिल्म अमरीका की उन सच्चाइयों से रू-ब-रू कराती है, जो दुनिया के सामने कम ही उजागर हो पाती हैं। चार साल पहले अमरीकी सेंट्रल फेडरल रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट में भी कहा गया था कि वहां अमीरों और गरीबों के बीच फासले बढ़ते जा रहे हैं।
‘नोमैडलैंड’ सिनेमा की ताकत, सामथ्र्य और संभावनाओं का उल्लेखनीय दस्तावेज है। वेनिस फिल्म समारोह में इसने जो सुर्खियां बटोरी हैं, उनकी गूंज अगले साल ऑस्कर अवॉर्ड समारोह में भी सुनाई दे सकती है।