
बूदी- पुरानी एतिहासिक तलवारों पर धार लगाकर नया नूर देने वाले राजकुमार धारवाल की खुद की जिंदगी बेनूर सी हो गई है उनके काम को न पूरा पैसा मिल पा रहा है न सम्मान, जिसके वे हकदार है। बूंदी जिले में एक मात्र यह परिवार है, जो पुश्तेनी पेशे को निखार रहा है।
सदर बाजार में एक छोटी सी दूकान में तलवार पर धार लगाते राजकुमार छोटी उम्र से पुश्तेनी सिकलीगरों की अपनी परम्परा को आज भी जिंदा किए हुए है।
रियासत काल में बूंदी रियासत की पहचान को समेटे इस दुकान में कई एतिहासिक हथियार मौजूद है जिन्हें देशी ही नही विदेशी सैलानी भी यादों के रूप में अपने साथ ले जाते है। इसके बदले कारीगरों को दाम तो मिलता है लेकिन सम्मान नही मिलता।
इसकी गिला आज भी उनके मन को कचोटती है। आंखों की रोशनी अब जवाब देने लगी है लेकिन पुश्तेनी काम को एक रवायत समझकर करने को मजबूर है। जीएसटी के बाद तो इनके रोजगार पर संकट ही आ गया है।
तलवारों पर धार लगाते हुए इन सिकलीगरों की यह आठवीं पीढ़ी है, जो बढ़ी शिद्दत से अपने पुश्तेनी काम को अंजाम दे रही है। कन्हैयालाल राठौड़ बताते है कि दादा- पिता ने यही गाइड लाइन दी और कोई काम नही सिखाया तो इसे ही पूर्वजों का आर्शीवाद समझकर कर रहें है। लेकिन अब आने वाले पीढ़ी इस काम से हाथ खींच रही है। वे बताते है कि बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपनी पंसद का जॉब करेगें। इस काम में अब पैसा नही।
बूंदी में मारू सिकलीगर लौहार के इस परिवार में अब केवल दो ही भाई है जो इस काम को कर रहें है। बाकि चाचा सूरजधारवाल जोधपूर, व दिलीप कुमार भीलवाड़ा में एतिहासिक तलवारों पर धार लगा रहें है जिन्हें सम्मान भी मिलता है।
राजकुमार का कहना है कि उनके पूर्वज रियासतकाल में राजा- महाराजाओं के लिए हथियार बनाने का काम करते थे रियासतें तो नही रही, लेकिन हथियार बनाने का उनका पुश्तेनी काम आज भी बरकरार है। पहले अष्टधातुओं से निर्मित फौलाद के हथियार बनाए जाते थे। उनका कहना है कि ये तलवारें इतनी धारधार हुआ करती थी कि लोहे को भी काट दिया करती थी।
दरबारों को युद्ध में विजय प्राप्त हो और रणभूमि में उनकी तलवार चमकती नजर आए इसके लिए पूर्वजो ने कोई कसर नही छोड़ी है। लेकिन जैसे जैसे इनकी पीढ़ी तलवारों पर धार लगाती गई उतनी ही गती से धार लगाने वाले की माली हालत खराब होती जा रही है। ऐसे में अब वे इस काम के साथ हस्तशिल्प के अन्य कार्यो की ओर भी रुख कर रहें हैँ।
1871 का बिगुल भी है मौजूद-
राजकुमार बताते है कि वें यूनिक आइटम को खरीदने व बेचने काम भी करते है। उनके पास करीब 150 साल पुराना बिगुल भी है, जिसपर ऐपल रॉ. लंदन 1871 अंकित है ओर चालु कंडिशन में है।
टाइगर नाइफ से होता था शिकार
सीकलीगर परिवार में आज भी दो ऑरिजनल टाइगर नाइफ मौजूद है, बाकि हुबहु टाइगर नाइफ भी बनाई हुई है। जिसे विदेशी पंसद करते है।
टाइगर नाइफ के नाम से विख्यात बूंदी की कटार के नाम से पहचानी जाती है। वे बताते हे कि राजा महाराजा इसका इस्तेमाल श्ेार के शिकार में करते थे। बाद में इसे टाइगर नाइफ के नाम से जाना जाने लगा।
200 साल पूरानी फौलाद की तलवार
यहां 200 साल पुरानी फौलाद की तलवार भी देखने को मिलती है जिसपर चांदी और सोने का वर्क चढ़ा हुआ है। हथियारों को ठीक करने के साथ धार लगाने वाले इन परिवार में धरोहर के रूप में अभी भी कई ऑरिजनल हथियार संजोए हुए है ताकि आने वाली पीढ़ी इसे निहार सके।
पूर्वज राजघराने के लिए तीर - कमान, तलवारें कटारें, ढाल, बल्लम भाले आदि बनाते थे। उनके दादा स्व.मांगीलाल और उनके पिता स्व मौडूलाल तलवारों ऐसी धार लगाते थे कि उसमें सीकल यानि शक्ल देख लिया करते थे। और फौलाद की तलवारों पर ऐसी धार कि शहद लगाकर अगर मक्खी बैठे तो कट जाए।
Published on:
23 Jan 2018 05:19 pm
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