
स्वाध्याय, सेवा और अनाहार रूपी तपस्या से हो सकती है कर्मों की निर्जरा
चेन्नई . जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ माधवरम के महाश्रमण समवसरण में आचार्य महाश्रमण कहा कि समाधि के द्वारा साधु समाधिस्थ रह सकता है। तपस्या में बहुत गुण होते हैं। तपस्या केवल निर्जरा की भावना की जानी चाहिए। तपस्या में भौतिक चीजों की कामना नहीं करने का प्रयास करना चाहिए। वर्तमान में लोग अनाहार (आहार का त्याग) को ही तपस्या कहते हैं। निर्जरा के मुख्यत: तीन माध्यम बताए गए हैं-स्वाध्याय, सेवा और अनाहार की तपस्या। साधु को इनमें से कोई न कोई हमेशा अपने पास रखने का प्रयास करना चाहिए। तीनों में से किसी को भी अपना मुख्य माध्यम बनाकर कर्मों की निर्जरा कर आत्मा को निमर्ल बनाने का प्रयास करना चाहिए।
मुख्यमुनि महावीकुमार ने ‘सुरंगों शील सजो’ गीत का संगान किया। उसके बाद आचार्य महाश्रमण ने ‘भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा’ के 25वें भव राजर्षि नन्दन के भव का वर्णन करते हुए कहा कि एक समय ऐसा आया जब राजा नंदन राजर्षि नंदन बन गए। अपने जीवन के अंतिम समय अर्थात् एक लाख वर्षों तक निरंतर मासखमण तप किया और इस तरह उन्होंने 11 लाख 60 हजार मासखमण तप कर लिए। आयुष्य पूर्ण कर वे दसवें देवलोक में पैदा हुए। उन्होंने कहा कि समयानुसार आदमी को कर्म निर्जरा के प्रकार को चुनाव कर अपनी आत्मा का कल्याण करने का प्रयास करना चाहिए। युवावस्था अथवा किशोरावस्था हो, शरीर स्वस्थ हो और प्रतिभा हो तो स्वाध्याय को समय दें। स्वाध्याय में जितना हो सके आगम का अध्ययन करने का प्रयास करना चाहिए। स्वाध्याय में मन न रमे तो सेवा करने का प्रयास करना चाहिए तथा उम्र के एक पड़ाव के बाद तपस्या पर ध्यान देना चाहिए। इन तीनों माध्यम से आदमी कर्म बंधनों से मुक्त हो सकता है और अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है।
‘ध्यान दिवस’ पर आचार्य ने पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि ध्यान एक ऐसी साधना है जिसके माध्यम से संयम और पुष्ट हो सकता है। आचार्य ने मन, वचन और काया को स्थिर रखकर ध्यान करने की प्रेरणा के साथ ध्यान की कई मुद्राओं को बताया और ध्यान का अभ्यास भी कराया।
Published on:
14 Sept 2018 11:39 am
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