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वैकुण्ठ एकादशी : जानें महत्व और मान्यताएं

हर पक्ष के ग्यारहवां दिन एकादशी तिथि होती है। यह भगवान विष्णु को समर्पित तिथि माना जाता है। एक महीने में दो पक्ष होने के कारण दो एकादशी होती हैं, एक शुक्ल पक्ष में तथा दूसरी कृष्ण पक्ष में।

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वैकुण्ठ एकादशी : जानें महत्व और मान्यताएं

वैकुण्ठ एकादशी : जानें महत्व और मान्यताएं

चेन्नई. गीताचार्य भगवान श्रीकृष्ण का अमृत वचन है, ‘मासानां मार्गशीर्षोस्मि’ ‘महीनों में मैं मार्गशीर्ष हूँ।' वैकुण्ठ एकादशी, जिसमें भगवान विष्णु की पूजा होती है, और आर्द्रा दर्शन, जिसमें भगवान शिव की पूजा होती है दोनों इसी महीने में मनाये जाते हैं। एकादशी तिथि का भी उद्भव इसी महीने में हुआ है। हर पक्ष के ग्यारहवां दिन एकादशी तिथि होती है। यह भगवान विष्णु को समर्पित तिथि माना जाता है। एक महीने में दो पक्ष होने के कारण दो एकादशी होती हैं, एक शुक्ल पक्ष में तथा दूसरी कृष्ण पक्ष में।

एकादशी की उत्पत्ति का उल्लेख पद्म पुराण की एक कथा में मिलता है। कृतयुग में, मुर नाम का एक असुर था जो ब्रह्मा से प्राप्त वरदान के कारण देवों के लिए एक बुरा सपना था। देवों ने विष्णु की सहायता मांगी। विष्णु ने असुर के खिलाफ लड़ा। युद्ध बहुत समय तक जारी रहा। अंत में विष्णु की दिव्य ऊर्जा से देवी योगमाया का उद्भव हुआ। देवी ने असुर को मार डाला। विष्णु प्रसन्न होकर देवी को 'एकादशी' की उपाधि प्रदान की, और घोषणा की कि वह पृथ्वी के सभी लोगों के पापों को दूर करने में सक्षम होगी। वह दिन मार्गशीर्ष महीने के कृष्णपक्ष का ग्यारहवाँ दिन था। इसे 'उत्पादन एकादशी' कहते हैं।

मोक्षदा एकादशी भी

मार्गशीर्ष महीने के शुक्लपक्ष एकादशी का दिन वैकुण्ठ (स्वर्ग द्वार) एकादशी है। इसे मोक्षदा एकादशी नाम से भी जाना जाता है। इसकी कहानी ऐसी है कि एक बार महाविष्णु ने ब्रह्मा के अहंकार को दबाने के लिए अपने कानों से मधु और कैटभ नाम के दो राक्षसों को प्रकट कराया। जब उन राक्षसों ने ब्रह्मा को मारने की कोशिश की, तो महाविष्णु ने उन्हें रोक दिया और उनसे कहा कि वे ब्रह्मा को जाने दें तो उन्हें मुँह माँगा वरदान देंगे। उन दैत्यों ने पलटकर कहा कि यदि महाविष्णु चाहें तो उनको वे वरदान देंगे।

महाविष्णु ने भी वरदान माँगा कि वे दोनों उनके द्वारा ही मारे जाएं। असुरों ने प्रार्थना की कि 'प्रभु, हमारा एक निवेदन है। आपको एक महीने तक हमारे साथ युद्ध करना होगा।' भगवान विष्णु ने भी इसे मान लिया। युद्ध के अंत में विष्णु ने उन्हें हरा दिया। भगवान विष्णु की महिमा को महसूस करते हुए, असुरों ने मांगा कि हमेशा के लिए भगवान के परमपद में निवास करने का वरदान दें।

महाविष्णु ने मार्गशीर्ष महीने के शुक्लपक्ष एकादशी के दिन परमपद का उत्तरी द्वार (स्वर्गद्वार) खोला और इसके माध्यम से असुरों को परमपद में प्रवेश कराया। असुरों ने यह भी प्रार्थना की कि 'भगवान! मंदिरों में मूर्तियों के रूप में खुद को स्थापित करें और मार्गशीर्ष महीने में शुक्लपक्ष एकादशी के दिन आपने हमारे ऊपर जो अनुग्रह किया है, उसे एक उत्सव के रूप में पालन करें। उस दिन, जो लोग मंदिर के स्वर्ग द्वार से निकलते हुए आपके दर्शन करते हैं, और जो आपके साथ स्वर्ग द्वार से बाहर आते हैं, उन्हें मोक्ष प्राप्ति हों।” परम दयावान भगवान ने भी उनसे मांगा वरदान दिया।
वैकुंठ एकादशी को पुत्रदा एकादशी भी कहा जाता है। इस व्रत का महत्व स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया था। इस व्रत से न सिर्फ योग्य संतान की प्राप्ति होती है बल्कि संतान से संबंधित और भी समस्याएं दूर होती हैं।

वैकुंठ एकादशी का व्रत

वैकुंठ एकादशी का व्रत भक्तों का एक महत्वपूर्ण पहलू है। वैकुंठ एकादशी का व्रत रखने वाले भक्त 'दशमी' के दिन, (एकादशी के पिछले दिन), केवल एक बार अर्थात् दोपहर का भोजन ही करते हैं। एकादशी के दिन पूरे दिन बिना भोजन के उपवास रखते हैं और पूरी रात जागरण करते हैं। उपवास माने भगवान के पास वास करना। अत: भक्त जप (विष्णु के नाम का जाप) और ध्यान में संलग्न होते हैं। विष्णु के मंदिर जाते हैं और विष्णु से विशेष प्रार्थना करते हैं।

वैकुंठ द्वार

यह उत्सव सभी विष्णु मंदिरों में मनाया जाता है। दक्षिण भारत के सभी विष्णु मंदिरों में भक्तों के प्रवेश करने के लिए एक विशेष प्रवेश द्वार होता है जिसे वैकुंठ द्वार कहा जाता है। यह प्रवेश द्वार केवल वैकुंठ एकादशी पर खोला जाता है। स्वर्ग द्वार से विष्णु की उत्सव मूर्ति बाहर निकलती है जिसे बहुत से भक्त बाहर से दर्शन करते हैं कुछ भक्त मूर्ति के पीछे पीछे ही बाहर निकलते हैं। माना जाता है कि कोई भी व्यक्ति जो इस दिन 'वैकुंठ द्वार' से निकलती मूर्ति के दर्शन करता है या मूर्ति के पीछे 'वैकुंठ द्वार' से गुजरता है, वह वैकुंठ प्राप्त करता है।

20 दिन का उत्सव

वैकुंठ एकादशी उत्सव 20 दिनों तक चलता है। कुछ मंदिरों में वैकुंठ एकादशी के पहले के दस दिन पकल पत्तु (सुबह का भाग 10 दिन) नाम से और कुछ मंदिरों में बाद के दस दिन इरा पत्तु (रात का भाग 10 दिन) नाम से मनाया जाता है। श्रीरंगम के श्री रंगनाथस्वामी मंदिर में बीसों दिन मनाया जाता है। इस मंदिर की मूल मूर्ति बीसों दिन अपने मुत्तंगि (मोती के एक कवच) में भक्तों को आशीर्वाद देते हैं। वैकुंठ एकादशी के बाद के दस दिनों के 10वें दिन, नम्पेरुमाल नाम के उत्सव (जुलूस की) मूर्ति को मोहिनी के रूप में सजाकर जुलूस निकाला जाता है। तिरुप्पति के बालाजी मंदिर में इसे मुक्कोटि (त्रिकोटि) एकादशी नाम से मनाते हैं।

आध्यात्म के साथ साथ आरोग्य
हमारे पूर्वज आध्यात्म के साथ साथ आरोग्य पर भी ध्यान देते थे। वास्तव में दशमी, एकादशी और द्वादशी तीन दिन व्रत रखने का एक क्रम है। दशमी के दिन एक बार खाकर अगले दिन बिना भोजन के रहने की तैयारी करते हैं। एकादशी के दिन बिना कुछ खाए उपवास रखते हैं। अगले दिन बहुत सबेरे तुलसी तीर्थ लेकर पारण करते हैं। फिर भांकटिया (टर्की बेरी), आंवला, अगस्ति (अगथि) आदि कसैली सब्जियों से शोरबा, रायता और सूखी सब्जी आदि पकाकर चावल के साथ खाते हैं। इससे पेट के कीड़े मर जाते हैं और पेट साफ़ हो जाता है। पेट सफा तो हर रोग दफा। इसप्रकार एकादशी व्रत मोक्षप्राप्ति के साथ-साथ स्वास्थ्य लाभ भी होता है।

ॐ नमो नारायणाय
अलमेलु कृष्णन, चेन्नई