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होली के त्योहार के बाद फिर शुरु हुआ पलायन, गांव में काम-दाम और रोटी न मिलने से हर साल हो रहा पलायन

प्रवासी महानगरों की ओर परिवार सहित वापसी करने लगे हैं। वहीं मनरेगा या अन्य किसी योजना से गांव में परिवार पालने लायक काम न मिलने से युवा भी पलायन की राह पर हैं। रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड पर प्रवासी मजदूर अपने परिवार व गृहस्थी के सामान के साथ बड़ी संख्या में नजर आने लगे हैं।

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दिल्ली की ट्रेन पकडऩे हरपालपुर स्टेशन आए मजदूर परिवार

होली का त्योहार संपन्न होते ही प्रवासी मजदूरों का पलायन शुरु हो गया है। प्रवासी महानगरों की ओर परिवार सहित वापसी करने लगे हैं। वहीं मनरेगा या अन्य किसी योजना से गांव में परिवार पालने लायक काम न मिलने से युवा भी पलायन की राह पर हैं। रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड पर प्रवासी मजदूर अपने परिवार व गृहस्थी के सामान के साथ बड़ी संख्या में नजर आने लगे हैं।

श्रम की जगह मशीनों का इस्तेमाल कर रहा प्रोत्साहित

गांवों से पलायन रोकने के लिए मानव श्रम को ग्राम विकास में भागीदार बनाने के लिए लागू कई योजनाएं भी ग्रामीणों को गांव में काम नहीं दिला पाई हैं। जहां भी काम हुए वहां मानव श्रम की बजाए मशीनों से काम कराए गए जिससे स्थिति बिगड़ती चली गई। ऐसे ही लगातार बदतर हो रहे हालातों से जूझते हुए ग्रामीण अपना घर, खेत-खेलिहान छोडकऱ शहरों की ओर कूच कर रहे हैं। एक तो मनरेगा में गांव में काम ही नहीं मिलते, यदि काम मिल भी जाए तो भुगतान कम और देर से मिलता है। मजदूरी बकाया होने से मजदूर काम करने की बजाय गांव से बोरिया बिस्तर समेटकर काम-दाम और रोटी के लिए महानगरों की ओर पलायन करना ज्यादा सही समझते हैं। ऐसे तमाम कारणों से गांव में काम व मजदूरी के अभाव में जिले से प्रतिदिन सैकड़ों प्रौढ़ और युवा मजदूर रोजगार की तलाश में कानपुर, दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़, हैदराबाद सहित अन्य महानगरों का रुख कर रहे हैं।

पेट पालने के लिए जाना पड़ता है गांव छोडकऱ

जिले से बड़ी संख्या में मजदूरों के पलायन से जहां मनरेगा की असलियत सामने आ रही है। वहीं ग्रामीण मजदूरों की दुर्दशा की चिंताजनक तस्वीर भी दिखाई दे रही है। बकस्वाहा से दिल्ली जा रहे पंकज आदिवासी ने बताया गांव में कोई काम नहीं है। काम होता भी है तो मजदूरी देर से मिलती है, ऐसे में लोगों से कर्जा लेकर चूल्हा जलाना पड़ता है। भगुंता और धनीराम का कहना है कि ऐसी योजना किस काम की जो न तो काम दे सके न समय पर मजदूरी। रामेश्वर आदिवासी ने बताया कि खेत में सिंचाई न होने से इस बार खेती सही नहीं है। गांव में काम भी नहीं है ऐसे में घर में चुटकी भर अनाज नहीं है। गांव में जो काम होते हैं, वे मशीन से कराए जाते है। कभी-कभी पांच-छह दिन काम मिलता है, तो 25 दिन खाली बैठना पड़ता है। पैसा मिलने में देर होने से परिवार का पेट पालना मुश्किल हो गया, इसीलिए बाहर जा रहे हैं।


मनरेगा नहीं रोक पा रही पलायन


सरकार ने आम गरीबों को गांव में ही रोजगार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से वर्ष 2005 में पंचायतों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी यानि मनरेगा योजना लागू की है। दुनिया की सबसे बड़ी इस योजना का मूल उददेश्य आस्था व श्रम मूलक कार्य कराके लोगों को काम उपलब्ध कराके उनका पलायन रोकना था, मगर ऐसा हो नही सका। सही मायने में अधिकारियों से लेकर पंचायत प्रतिनिधियों तक सभी मनरेगा से मलाई खा रहे हैं, वहीं जरूरतमंद ग्रामीण परेशान हैं। सच्चाई ये है कि एक तो 90 प्रतिशत ग्राम पंचायतों में कार्य नहीं हो रहे हैं, जो कार्य होते भी हैं वे कागजों पर पूर्ण करके राशि आहरित कर ली जाती है। तालाब गहरीकरण, मिट्टीकरण, पौधरोपण, नाला सफाई के काम मनरेगा वाले अधिकांश काम मशीनों से कराए जा रहे हैं। वहीं कई काम कराए बिना ही मजदूरी तथा मटेरियल के नाम पर फर्जी मस्टर व फर्जी बिलों से राशि निकाल ली गई है।

इनका कहना है

बेहतर भविष्य के लिए बाहर जाना अलग बात है। लेकिन पलायन मजबूरी में होना अच्छा नहीं है। मैने गांव में भ्रमण के दौरान व बैठकों में मनरेगा के जरिए लोगों को काम देने के निर्देश दिए हैं।
तपस्या परिहार, जिला पंचायत सीइओ