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विधायक का अपमान मतलब विधानसभा का अपमान है, जानिए किसने कहा था यह

अतीत का झरोखा

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Then the government had to issue circular, honor the MLA

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धर्मेन्द्र सिंह. छतरपुर। पहले सबडिवीजन में विधायकों की बैठक होती थी। छतरपुर में एक बैठक बुलाई गई,मैं गया,एसडीएम ने मुझे कुर्सी दी, लेकिन विधायक जुझार सिंह खड़े रहे। एसडीएम कुसी पर बैठे रहे,कुछ देर बाद एक बैंच मंगाकर विधायक को बैठने के लिए दी। तब मैने बैठक का बहिष्कार किया और कहा ये तो विधायक का अपमान है। मैने विधानसभा में अवमानना का नोटिस दिया। कांगेस के विधायकों ने सिफारिश की, इसे खारिज कर दिया जाए। स्पीकर राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल ने मुझसे पूछा,जगदम्बा निगम इसमें अवमानना कैसे? तब मैने कहा विधायक का अपमान मतलब विधानसभा का अपमान है। स्पीकर ने माना कि विधायक को खड़ा रखना और बैंच पर बैठाना अवमानना की श्रेणी में आता है। विधानसभा के 15 सदस्यों की कमेटी बनाई गई। जिसमें 12 सदस्य कांग्रेस से,दो बीजेपी से और एक मैं था। एसडीएम की पेशी होती रही,अंतत: सरकार ने एक सर्कुलर जारी किया कि अधिकारी से जब भी विधायक मिलने आएं, तो खड़े होकर उन्हें रिसीव कीजिए, जब विधायक जाएं तो खड़े होकर भेजिए।

सुप्रीम कोर्ट ने बदली व्यवस्था
वर्ष 1977 में मध्यप्रदेश की छठवीं विधानसभा के लिए जनता पार्टी की सरकार बनी, कैलाश जोशी मुख्यमंत्री चुने गए थे। फिर सन 18 जनवरी 1978 से 19 जनवरी 1980 तक वीरेन्द्र कुमार सकलेचा और 20 जनवरी 1980 को सुदंरलाल पटवा मुख्यमंत्री बने। सुंदरलाल पटवा का अभी 28 दिन का ही कार्यकाल हुआ था, केन्द्र सरकार ने राष्ट्रपति शासन लगा दिया। राज्य सरकार को भंग करके 113 दिन तक राष्ट्रपति शासन लगा रहा। फिर चुनाव हुए,1980 से 1985 और 1985 से 1990 तक कांग्रेस की सरकार रही। 1990 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी,5 मार्च 1990 को सुदंरलाल पटवा मुख्यमंत्री बने, उनका कार्यकाल 2 साल 285 दिन ही हुआ था, केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने फिर से राज्य सरकार को भंग कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया। केन्द्र के इस कदम के खिलाफ भारतीय जनता पार्टी की सरकार सुप्रीम कोर्ट गई। उस समय मैं विधायक था। कोर्ट ने कहा- कि विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव पास किए बिना सरकार भंग नहीं करना चाहिए और तब ये नियम बना दिया गया कि केन्द्र अपनी मर्जी से राज्य सरकार को भंग नहीं कर सकती है।
मध्यप्रदेश को मिला 30 फीसदी पानी :
छतरपुर जिले में बने रनगुंवा बांध का पानी उत्तरप्रदेश जाता था। जबकि बांध मध्यप्रदेश में,डूब क्षेत्र मप्र में था,45 किलोमीटर चलकर पानी उत्तरप्रदेश जाता था। उत्तरप्रदेश की खेती लहलहाती और छतरपुर में बांध के आसपास गेंहू तक नहीं होता था। जवा,कोदो की खेती होती थी,बांध के आसपास के गांव में सूखा जैसी स्थिति थी। 1952 से 1977 तक किसी विधायक ने इस मुद्दे पर कुछ नहीं किया। तब मैने आंदोलन की शुरुआत की और कहा कि हमें पानी मिलना चाहिए,नहीं तो बांघ तोड़ देंगे। हम लोग फावड़ा लेकर बांध तोडऩे पहुंच गए,तब उत्तरप्रदेश के अधिकारी कलेक्टर,एसपी मौके पर आ गए। हम लोगों की गिरफ्तारी हुई, मैं सत्ताधारी दल का विधायक था। लेकिन पार्टी के ही कु छ लोगों ने कहा कि जेपी निगम सरकार विरोध काम कर रहे हैें। तब विधानसभा में कैबिनेट मंत्री जबर सिंह ने कहा कि अगर मैं मंत्रीमंडल में नहीं होता तो इस आंदोलन में शामिल हो जाता। 2 साल आंदोलन चला, मुद्दा इतना बढ़ा कि दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री के बीच बात हुई। अंतत: मध्यप्रदेश को 30 फीसदी पानी देने पर उत्तरप्रदेश राजी हो गया। बांध का पानी उतरने पर खाली होने वाली जमीन की नीलामी होती थी,वो नीलामी बंद हुई। जिनकी जमीन बांध में गई थी, अब उन्हें या भूमिहीन को ही बांध की जमीन खेती के लिए लीज पर मिलने लगी। हमारी मांग 50 फीसदी पानी का हक पाने की थी,लेकिन फिर सरकार भंग हो गई,कांग्रेस की सरकार आई। बांध के पानी का मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया।