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ऐतिहासिक है लक्ष्मीनाथ मंदिर

किसी भी नगर की सभ्यता, संस्कृति, पहचान वहां के धार्मिक आस्था और संस्कारों से ही होती है।

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ऐतिहासिक है लक्ष्मीनाथ मंदिर

ऐतिहासिक है लक्ष्मीनाथ मंदिर

सादुलपुर. किसी भी नगर की सभ्यता, संस्कृति, पहचान वहां के धार्मिक आस्था और संस्कारों से ही होती है। शहर के मध्य स्थित ढ़ाई सौ साल से भी अधिक पुराना श्रीलक्ष्मीनाथ जी मंदिर बीकानेर रियासत के तत्कालीन महाराज गजेसिंह ने अपने बड़े युवराज राजसिंह के नाम पर राजगढ़ कस्बे की स्थापना सन् 176 6 ईस्वीं में की एवं शहर की स्थापना के साथ ही उक्त मंदिर की स्थापना हुई। मंदिर की स्थापना के साथ ही सेवक समाज के लोगों को बीकानेर सेे पूजा-अर्चना के लिए महाराज की ओर से भिजवाया गया। तभी से इसी समाज के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी पूजा-अर्चना करते आ रहे हैं। सादुलपुर के इतिहास स्वर्ण जयंती स्मृति सरोज के अनुसार इस मंदिर का निर्माण 176 6 में यहां के सेठ चैनीराम फ तेहपुरिया ने करवाया था। उस वक्त भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का प्रसाद सेठ ने ऊंटों पर बीकानेर भिजवाया था। जिससे खुश होकर महाराज गजेसिंह ने सेठ चैनीराम को नगर सेठ की उपाधि से स मानित किया था।
मंदिर में विराजमान हैं यह देवता
पुजारी शंकरलाल सेवक ने बताया कि मंदिर में स्टेट के समय से ही हनुमान जी, गौरीशंकर जी, दुर्गा माता तथा लक्ष्मीनाथ जी के मुख्य मंदिर हैं तथा एक रामदरबार का मंदिर भी हैं। लेकिन देवस्थान विभाग की ओर से लक्ष्मीनाथ जी मंदिर के नाम पर 1500 रूपए प्रतिमाह पुजारी को दिए जा रहे हैं, जबकि मंदिर प्रांगण में पांच देवता विराजमान हैं, सभी की सुबह-शाम पूजा-अर्चना एवं दीपक जलाने का कार्य भी नियमित होता है। लेकिन 1500 रुपए नहीं के बराबर है। श्रद्धालुओं के सहयोग से ही या स्वयं के खर्च से देवताओं की पूजा-अर्चना हो रही है।
बहुत-से अभाव झेल रहा है मंदिर
मंदिर ने रियासत काल के बाद बहुत से अभाव झेले परन्तु फि र भी यहां लगातार पूजा अर्चना जारी रही। साल में चार मु य उत्सव मनाए जाते हैं, जिनमे अन्नकूट महोत्सव, शरद पूर्णिमा उत्सव तथा कृष्ण जन्माष्टमी उत्सव प्रमुख हैं, जो आज भी समारोह पूर्वक मनाए जाते हैं। मंदिर के वर्तमान पुजारी शंकरलाल सेवक ने बताया कि मंदिर में अब श्रद्धालुओं का अभाव हैै। लोगों को रूझान वर्तमान में धार्मिक संस्कृति से भटककर पाश्चात्य संस्कृति की ओर बढ़ रहा है।
पुजारी की जुबानी
पुजारी ने बताया कि सरकार भी धार्मिक स्थलों एवं उनमें होने वाले उत्सवों पर पैसा खर्च नहीं करती है। उन्होंने बताया कि सन 1997 से पूर्व मात्र पांच रुपए 6 0 पैसे प्रतिमाह धूंप और दीप के मिलते थे। लेकिन 1997 में तत्कालीन मु यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत ने इसे बढ़ाकर 400 रुपए प्रतिमाह किए थे एवं लगभग एक वर्ष पूर्व 1500 प्रतिमाह पूजा-अर्चना के लिए अवैतनिक दिए जा रहे हैं। लेकिन महंगाई के दौर में यह भी नहीं के बराबर है।