
Bharat meet with Lord Rama during vanvas and said to return ayodhya: संसार में भाई से अधिक प्यारा कोई नाता नहीं होता। इस एक नाते में जाने कितने नाते समाए होते हैं। साथ खेलने का नाता, साथ पढऩे-लिखने का नाता, एक ही थाली में खाने का नाता, एक ही बिछावन पर सोने का नाता...
बचपन के झगड़ों में भले एक दूसरे से रूठे गुस्साते हों, पर एक के रोने पर दूसरा भाई झटपट पिता की तरह मनाने और चुप कराने लग जाता है। एक नाता बार-बार आंसू पोछने का भी होता है। एक-दूसरे के कंधे पर चढ़ कर खेलने का नाता, तो एक दूसरे के कंधे पर सिर रख कर रोने का नाता...
किसी विशेष कारण से एक-दूसरे के प्रति मन में मैल बैठ भी गया हो, पर भाई को उदास देख कर दूसरे के हृदय का बांध टूट जाता है। भरत के चेहरे पर पसरी इसी उदासी ने क्षण भर में ही लक्ष्मण जैसे कठोर योद्धा को पिघला दिया था और उनके हाथ से लकड़ी गिर पड़ी थी। अब वही उदास मुख लेकर भरत राम के सामने थे।
राम! करुणा के सागर राम! तीन छोटे भाइयों का बड़ा भाई होने का भाव जिसे बचपन से ही अत्यंत संवेदनशील बना गया था, वे कोमल हृदय के स्वामी राम! पत्थर बनी अनजान स्त्री की पीड़ा से द्रवित होकर उसे मुक्ति दिलाने वाले राम ने जब अनुज भरत का अश्रुओं से भरा मुख देखा, तो बिलख पड़े। चरणों में पड़े भाई को उठा कर हृदय से लगाया और चीख कर रो पड़े...
जो जगत के पालनहार थे, स्वयं लीलाधर थे, सृष्टि की हर लीला के सृजक थे, वे अपने राज्य की आम प्रजा के सामने बच्चों की तरह बिलख कर रो रहे थे। रोते-रोते रुकते, भरत से कुछ समाचार पूछने के लिए उनके मुख की ओर देखते, पर उनका मुख देख कर पुन: फफक कर रो पड़ते।
कुछ समय तक दूर खड़े लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों बड़े भाइयों को लिपट कर रोते देखते रहे, फिर अनायास ही आगे बढ़ कर वे दोनों भी लिपट गए...
चार भाइयों को यूं प्रेम से लिपट कर रोते देख कौन न रो पड़ता? उस गहन वन में एकत्र हुए अयोध्या के नगर जन की आंखें बहने लगीं। कौशल्या के साथ खड़ी कैकई का मन एकाएक हल्का हो गया, वह लपक कर कैकई से लिपट गईं। कौशल्या कुछ न बोलीं, चुपचाप कैकई में माथे पर स्नेह से भरा हाथ फेरती रहीं।
जिस कुल के भाइयों में स्नेह हो, उनके समस्त पितर यूं ही तृप्त हो जाते हैं। स्वर्ग में बैठे इक्ष्वाकु वंश के समस्त पितर आनंदित हो अपने बच्चों पर आशीष की वर्षा करने लगे थे। उसी क्षण सिसकते राम ने पूछा- कैसा है रे? इतना उदास क्यों है भरत?
भरत ने सिसकते हुए ही उत्तर दिया- आपने हमें त्याग दिया भैया! अब जीवन में खुश होने का कोई कारण बचा है क्या?
'छी!' राम ने डपट कर कहा, 'कैसी बात करते हो भरत? भाइयों को त्यागना पड़े तो राम उसी के साथ संसार को त्याग देगा। मैं तो बस कुछ दिनों के लिए तुम सब से दूर आया हूं अनुज! शायद नीयति परीक्षा ले रही है कि राम अपने भाइयों से अलग हो कर भी जी रहा है या नहीं! वह तो लखन है मेरे साथ, नहीं तो इस परीक्षा में हम हार ही जाते।'
भरत फिर लिपट गए। वे कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे। राम ने उन्हें गले लगाए हुए ही कहा, 'अयोध्या में सबकुछ ठीक तो है भरत? सारी प्रजा को साथ लाने का क्या प्रयोजन है भाई?'
'अयोध्या में कुछ भी ठीक नहीं है भैया! पिताश्री...' भरत फफक पड़े। राम ने घबराकर पूछा- 'क्या हुआ पिताश्री को? भरत? बोल भाई, क्या हुआ पिताश्री को?'
भरत ने लिपटे-लिपटे ही कहा, 'आपके वियोग में पिताश्री ने प्राण त्याग दिया भैया। हम सब अनाथ हो गए...'
राम पुन: चीख पड़े। चारों भाई पुन: एक-दूसरे से लिपट गए थे। देर तक बिलखते रहने के बाद राम शांत हुए और अनुजों को स्वयं से लिपटाए रख कर ही कहा, 'तुम सब अनाथ कहां हुए भरत! तुम सब के लिए तो तुम्हारा बड़ा भाई राम है ही, अनाथ केवल मैं हुआ हूं। दुखी मत होवो... नीयति के आगे हम सब विवश हैं।'
भरत ने बताया कि माताएं भी आई हैं, और जनकपुर से महाराज जनक का परिवार भी आया है। राम भाइयों को लेकर भीड़ के मध्य में घुसे और माता कैकई को देखते ही उनके चरणों मे अपना शीश रख दिया।
- क्रमश:
Updated on:
07 Apr 2023 04:45 pm
Published on:
07 Apr 2023 04:44 pm
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