
Daanveer Karan
Daanveer Karan: जब जब दुनिया में दान का जिक्र होता है। तब तब लोग दानी कर्ण को याद करते हैं। क्योंकि कर्ण महाभारत का अकेला ऐसा महायोद्धा था जो चरित्र, वीरता, मित्रता और दानशीलता का प्रतीक माना जाता है। लेकिन क्या आपको पता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने रणभूमि में घायल कर्ण की परीक्षा क्यों ली थी? अगर नहीं जानते तो यहां जानिए दानी कर्ण से जुड़ी इस रोचक कहानी के बारे में।
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार जब महाभारत का युद्ध चरम पर था। अर्जुन और कर्ण के बीच भयंकर युद्ध चल रहा था। तभी अचानक कर्ण के रथ का पहिया धरती में धंस गया। अर्जुन ने मौके का फायदा उठाते हुए कर्ण को अपने बाणों का निशाना बनाया। जब कर्ण का शरीर बाणों से छलनी होकर धरासायी हो गया। कर्ण को रणभूमि में परास्त देखकर अर्जुन को अहंकार हो गया। अर्जुन अहंकार का वशीभूत होकर डींगे हांकने लगा और कर्ण का अपमान करने लगा।
अर्जुन को अहंकार में देखकर श्रीकृष्ण ने कर्ण की तारीफ करते हुए कहा कि हे अर्जुन! कर्ण सूर्यपुत्र है और तुम कर्ण को इसलिए पराजित कर पाए हो कि उसने अपने कवच और कुंडल दान में दे दिए हैं। अन्यथा कर्ण को रणभूमि में हराना तुम्हारे वश की बात नहीं थी। क्योंकि कर्ण केवल वीर ही नहीं बल्कि दानवीर भी है। उसके जैसा दानवीर न आजतक पैदा हुए है और न आगे कोई होगा। कर्ण की श्रीकृष्ण के मुख से इतनी तारीफ सुनकर अर्जुन से रहा नहीं गया और तर्क देकर उपेक्षा करने लगा। जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा अगर तुम चाहो तो उसकी दानवीरता की परीक्षा ले सकते हो।
इसके बाद अर्जुन और श्रीकृष्ण ब्रह्मण का रूप धारण किया और रणभूमि में घायल कर्ण समीप परीक्षा लेने के लिए पहुंच गए। घायल कर्ण अपनी अंतिम सांसे पूरी कर रहा था। तभी भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण को आवाज देते हुए कहा कि हे सूर्यपुत्र हम गरीब ब्रह्माण भिक्षा लेने के लिए आए हैं। क्या हमारी इच्छा पूर्ण होगी। असहाय कर्ण थोड़ा हिचककर बोला। हे भूदेव! मैं रणक्षेत्र में घायल अवस्था में मृत्यु का इंतज़ार कर रहा हूं। मेरी सारी सेना भी मारी जा चुकी है। ऐसे हालात में मैं आपको भला क्या ही दे सकता हूं? श्रीकृष्ण ने कर्ण से कहा कि हे राजन! तो क्या अब हमें खाली हाथ ही जाना होगा। अगर हम खाली हाथ लौटते भी हैं तो संसार में आपकी खूब बदनामी होगी, लोग आपको धर्महीन राजा के रूप मैं याद करेंगे।
यह सुनकर दानी कर्ण ने श्रीकृष्ण को जबाव देते हुए कहा कि मुझे बदनामी भय नहीं मगर में धर्महीन होकर मरना नहीं चाहता हूं। इसलिए मैं आपकी इच्छा जरूर पूरी करुंगा। घायल कर्ण ने रणभूमि में पड़े पाषाण से अपने दोनों दांत तोड़े और भगवान श्रीकृष्ण को देना चाहा। लेकिन श्रीकृष्ण ने इस दान को झूठा और अपित्र बता कर स्वीकार नहीं किया।
रणभूमि में असहाय कर्ण ने धर्म का पालन करते हुए और अपनी कर्तव्यनिष्ठा को दिखाते हुए अपने धनुष पर बाण चढ़ाकर गंगा को याद किया। इसके बाद कर्ण ने जमीन पर बाण मारा और वहां गंगाजल की तेज धारा बहने लगी। कर्ण ने उस जल धारा में दातों को साफ किया और उन्हें देते हुए कहा हे देव! अब यह स्वर्ण पवित्र और शुद्ध है। कृपया इसे स्वीकार करिए।
इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण आशीर्वाद दिया और कहा जब तक यह पृथ्वी रहेगी तब तक तुम्हारी दानवीरता का गुणगान चारों तरफ होता रहेगा। साथ ही तुमको मोक्ष की प्राप्ति होगी।
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Published on:
11 Dec 2024 03:08 pm
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