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भारत का एक ऐसा गांव जहां हनुमानजी की पूजा पर है प्रतिबंध! जानें क्यों

locationभोपालPublished: Apr 21, 2020 10:10:50 pm

हनुमान जी से आखिर क्यों नाराज हैं ये ग्रामीण? जानें इस गांव की खासियत

in this village of india villagers never worship lord hanuman

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इन दिनों दूरदर्शन पर आ रहे रामायण सीरियल के चलते, रामायण एक बार फिर चर्चाओं में आ गई है। ऐसे में आज हम आपको एक ऐसी घटना के बारे में बताने जा रहे हैं। जिसके चलते सनातन धर्मियों में कलयुग के देवता के रुप में प्रसिद्ध श्री हनुमान को लेकर देश के एक गांव के लोग त्रेतायुग से आज तक नाराज चल रहे हैं, जिसके चलते यहां हनुमान की पूजा नहीं होती, लेकिन भगवान श्रीराम को आज भी पूजते हैं ये…

दरअसल त्रेतायुग में श्रीराम की तरह ही उनके छोटे भाई लक्ष्मण भी परम शक्तिशाली थे। उन्हें भी जीत पाना लगभग असंभव था। लक्ष्मण जी शेष नाग का अवतार माने जाते हैं। लेकिन रावण से युद्ध के दौरान एक समय ऐसा भी आया था जब लक्ष्मण रावण के पुत्र मेघनाथ के दिव्य शस्त्र से घायल कर दिया और उन पर मृत्यु के बादल मंडराने लगते हैं।

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इस समय मूर्छित पड़े अपने भाई को देखकर भगवान राम भी व्याकुल हो जाते हैं। तब हनुमान जी लक्ष्मण को बचाने के लिए रावण की लंका से वैद्य सुषेण को उनके घर समेत उठा लाए। अपने वैद्य धर्म का पालन करते हुए वैद्य सुषेण ने लक्ष्मण को इलाज के लिए देखा तो शक्ति बाण की काट के लिए लक्ष्मण जी को बचाने के लिए संजीवनी बूटी लाने के लिए कहा। इस पर हनुमान जी इस कार्य को करने का बीड़ा उठाया।

कहा जाता है कि जहां से हनुमान जी संजीवनी बूटी लाए थे, वो गांव देवभूमि उत्तराखंड में मौजूद है। इस गांव का नाम द्रोणागिरि है। कहा जाता है कि पहाड़ तोड़ कर ले जाने से यहां के लोग आज भी भगवान हनुमान से नाराज हैं, जिस वजह से यहां हनुमान जी की पूजा नहीं होती। लोगों की नाराजगी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां इस गांव में लाल रंग का झंडा लगाने पर तक पाबंदी है।

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यहां है द्रोणागिरि गांव…
देवभूमि उत्तरांचल के चमोली क्षेत्र में आने वाले द्रोणागिरि गांव के लोगों में मान्यता है कि लक्ष्मण जी को बचाने के लिए हनुमान जी जिस पर्वत को उठाकर ले गए थे, वह यहीं स्थित था।

चमोली जिले में जोशीमठ से मलारी की तरफ लगभग 50 किलोमीटर आगे बढ़ने पर जुम्मा नाम की एक जगह पड़ती है। यहीं से द्रोणागिरी गांव के लिए पैदल मार्ग शुरू होता है। यहां धौली गंगा नदी पर बने पुल के दूसरी तरफ सीधे खड़े पहाड़ों की जो श्रृंखला दिखाई पड़ती है, उसे पार करने के बाद ही द्रोणागिरी तक पहुंचा जाता है।

संकरी पहाड़ी पगडंडियों वाला तकरीबन दस किलोमीटर का यह पैदल रास्ता काफी कठिन लेकिन रोमांचक है। द्रोणागिरी गांव से ऊपर बागिनी, ऋषि पर्वत और नंदी कुंड जैसे कुछ चर्चित स्थल भी हैं जहां गर्मियों में काफी ट्रेकर्स पहुंचते हैं।

माना जाता है कि लोग इस पर्वत की पूजा करते थे। गांव वालों की माने तो जिस वक्‍त हनुमान जी संजीवनी बूटी लेने आए, तब पहाड़ देवता ध्‍यान मुद्रा में थे। हनुमान जी ने पहाड़ देवता की अनुमति भी नहीं ली औरउनकी सा‍धना पूरी होने का इंतजार भी नहीं किया, इसलिए यहां के लोग हनुमान जी से नाराज हो गए।

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स्थानीय लोगों में ऐसी मान्यता है कि हनुमान जी को एक वृद्ध महिला ने इस पर्वत का वह हिस्सा दिखाया था जहां संजीवनी बूटी उगती है। लेकिन हनुमान जी उस बूटी को पहचान नहीं पाए जिस कारण वे पर्वत को ही उठाकर ले गए। वहीं दूसरी ओर इस गांव में लोगों की श्रीराम से कोई नाराजगी नहीं है। जिस कारण भगवान राम की पूजा यहां की जाती है, लेकिन हनुमान जी की पूजा यहां के लोग नहीं करते।

छह माह के लिए बसता है ये गांव…
नीति घाटी में मुख्यतः भोटिया जनजाति के लोग रहते हैं। द्रोणागिरी भी भोटिया जनजाति के लोगों का ही एक गांव है लगभग 12 हजार फीट की ऊंचाई पर बसे इस गांव में करीब सौ परिवार रहते हैं।

सर्दियों में द्रोणागिरी इस कदर बर्फ में डूब जाता है कि यहां रह पाना मुमकिन नहीं होता। लिहाजा अक्टूबर के दूसरे-तीसरे हफ्ते तक सभी गांव वाले चमोली शहर के आस-पास बसे अपने अन्य गांवों में लौट जाते हैं। मई में जब बर्फ पिघल जाती है, तभी गांव के लोग द्रोणागिरी वापस लौटते हैं।

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खास बात ये भी है कि सर्दियों में जब द्रोणागिरी के लोग लोग गांव छोड़कर जाते हैं तो अपनी काफी फसल भी यहीं छोड़ जाते हैं। इन फसलों को सहेज कर रखने के तरीके भी अदभुत हैं। मसलन आलू की जब अच्छी पैदावार होती है तो गांव के लोग जाते वक्त इसे कई बोरियों में भरकर घर के पास ही एक गड्ढे में दफना देते हैं। यह गड्ढा इस तरह से बनाया जाता है कि चूहे भी इसमें नहीं घुस पाते और आलू पूरे साल बिलकुल सुरक्षित रहते हैं।

इसे गांव वालों का देसी ‘कोल्ड स्टोरेज’ कहा जा सकता है। बर्फ की चादर के नीचे दबे ये आलू न तो खराब होते हैं और न ही इनमें अंकुर फूटते हैं। लिहाजा गर्मियों में जब गांव के लोग वापस लौटते हैं तो उनके पास खाने लायक कई बोरी आलू पहले से ही मौजूद होते हैं। इन्हीं आलुओं में से कुछ खेती के लिए निकाल लिए जाते हैं, लिहाजा अगली फसल के बीज भी यहां तैयार रहते हैं।

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