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हरियाली पर चल रही आरी…पर्यावरण हो रहा प्रदूषित

राजाखेड़ा क्षेत्र की आबोहवा ईंट भ_ों के अवैध खनन से पहले ही धूल धूसरित हो चुकी है और सांसों पर संकट मंडरा रहा है। वहीं अब भट्टों की चिमनियों को गर्म करने की तैयारिया भी तेज हो चूकी हैंं। जिसके चलते अब प्रदूषण के तेजी से बढऩे की आशंका से लोग चिंतित हैं।

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हरियाली पर चल रही आरी...पर्यावरण हो रहा प्रदूषित The saw is being used on greenery...the environment is getting polluted

उपखंड के अवैध भट्टे निगल गए हरियाली

प्रदूषण स्तर बढऩे का मुख्य कारण बनी वनों की कटाई

dholpur, राजाखेड़ा क्षेत्र की आबोहवा ईंट भ_ों के अवैध खनन से पहले ही धूल धूसरित हो चुकी है और सांसों पर संकट मंडरा रहा है। वहीं अब भट्टों की चिमनियों को गर्म करने की तैयारिया भी तेज हो चूकी हैंं। जिसके चलते अब प्रदूषण के तेजी से बढऩे की आशंका से लोग चिंतित हैं।

गौरतलब है कि राजाखेड़ा उपखंड की आबोहवा के दुश्मन बने 100 से अधिक वैध-अवैध ईंट भट्टे क्षेत्र के पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा बनते जा रहे हैं। रसूखदार भट्टा व्यवसाई मुनाफा की दर को बढ़ाने के लिए भट्टों में कोयले की जगह पेड़ों को कटवाकर बड़ी मात्रा में भट्टों में झोंकते जा रहे हैं। इससे पिछले दो दशक में क्षेत्र का वन क्षेत्र लगभग समाप्त होने के कगार पर आ गया है और क्षेत्र पर्यावरण पर दोहरी मार झेलने को मजबूर है। क्योंकि एक तरफ तो वन क्षेत्र खत्म होने से शुद्ध हवा का अभाव होता जा रहा है वहीं भट्टों का गहरा काला कच्चा धुआं लोगों के फेंफड़ों को खराब कर रहा है।

क्षेत्र के लगभग 100 से अधिक वैद्य अवैध ईंट भ_ों में वर्ष में 700 बार भट्टा में आंच सुलगाई जाती है । जिसमें नियमानुसार कोयले का प्रयोग होना चाहिए, लेकिन लागत को कम रखकर मुनाफा बढ़ाने के लिए इन भट्टों में प्रतिवर्ष 7000 से अधिक पेड़ कटवा कर झोंक दिए जाते हैं। इसका कारण कोयले की बढ़ती हुई लागत है साथ ही यहां वन संपदा पुरातन काल से ही बड़ी मात्रा में उपलब्ध रही है। क्षेत्र में बड़ी मात्रा में वन क्षेत्र उपलब्ध हैं जहां से इन्हें पेड़ भी मामूली कटाई लागत पर मिल जाते हैं। जो इनके मुनाफे को तो कई गुना बढ़ा देते हैं पर प्रदूषण के स्तर को खतरनाक रूप से उच्च स्तर पर लाते जा रहे हैं।

कहां-कहां वन क्षेत्र हुए खत्म

राजाखेड़ा उपखंड चंबल और उत्तनगन नदी के मध्य समानांतर बसा हुआ है। दोनों ही नदियों के खानदरों में विशाल वन संपदा पुरातन काल से ही मौजूद थीं साथ ही डिडवार, दीरावली, चिंतामन की घड़ी, काटर, गड़ी जाफर, बसई घीयाराम एवं अन्य नदी तटों के इलाके वन संपदा से अत्यधिक परिपूर्ण थे, लेकिन अब वन संपदा यहां केवल इतिहास की बात रह चुकी है। अब यहां के क्षेत्रों में नदियों के पानी से निकलकर वृक्षों से तरोताजा ताजी हवा के झोंके नहीं, बल्कि भट्टों की आंच से निकला काला धुआं और गर्म हवाओं के झोंके ही महसूस होते हैं।

पर्यावरण को दोहरा नुकसान

एक ओर तो सैकड़ों भट्टों में तूड़ी और लकड़ी जलाने से भारी मात्रा में काला धुआं निकल रहा है, वहीं इस प्रदूषण को कम करने वाला वन क्षेत्र भी भट्टों की भट्टियों की भेंट चढ़ चुका है। ऐसे में परिस्थितिकी असंतुलन से क्षेत्र के तापमान में वृद्धि, बारिश की न्यून मात्रा, वातावरण में बढ़ता धूल और धुआं बड़ा खतरा उत्पन्न कर रहे हैं। वहीं लोगों को श्वास रोगी बनाते जा रहे हैं।

पौधरोपण बना मजाक

क्षेत्र में भट्टा मालिकों एवं अन्य संस्थाएं प्रतिवर्ष सघन पौधरोपण करवाना प्रशासन को बताया जाता है, लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है। यहां भट्टा क्षेत्रों में वृक्ष तो अब आसपास भी दिखाई नहीं देते। बल्कि यहां तो सिर्फ काला धुआं उगल रही चिमनिया दूर-दूर तक दिखाई देती हैं, जबकि इनको रोकने के लिए जिम्मेदार वन विभाग खामोशी से कटते पेड़ों और इनका परिवहन कर रही ट्रॉलियों की गिनती में ही व्यस्त बने रहते हैं।

गली-गली अवैध आरा मशीनें

राजाखेड़ा मुख्यालय पर ही दो दर्जन से अधिक आरा मशीनें मुख्य मार्गों के साथ-साथ अंदरूनी क्षेत्रों में लगी हुई हैं जो इन पेड़ों को ठेकों पर कटवा कर खरीद रही है। इन मशीनों में से अनेक के पास तो लाइसेंस तक नहीं हैं, लेकिन न तो वन विभाग और न ही पुलिस इनकी जांच करती है साथ ही हरे पेड़ों से लदे ट्रेक्टर ट्रॉलियों को पकडऩे की जगह उन्हें सेफ कॉरिडोर तक उपलब्ध करवा रही है। दिन में कई बार ऐसे वाहन चौकी के सामने से ही गुजरते नजर आते हैं।