
मेवाड़ में मीरा, तो गिरीपुर में गवरी के भजनों से रिझते है गोवर्धन गिरधारी
डूंगरपुर. दक्षिणांचल में स्थित डूंगरपुर जिले का कण-कण शंकर का स्वरूप है। शिव और शक्ति की इस धरा पर कई मंदिर अपनी अगाध आस्था के लिए सुदूरतक ख्याति प्राप्त है। यहां की जमीं ने कई संत, कोटवाल और लोक आराध्य देवों को भी जन्मा है, जिन्होंने अपनी निर्गुणी भक्ति के बूते उस दौर में धर्म की ऐसी ज्योत जलाई है कि वह दिव्य ज्योति आज भी अपनी जगमग आभा बिखेरकर मानव मात्र को तमसो मां ज्योर्तिगम्य की तर्ज पर जीवन के गुढ़ रहस्यों से बाहर निकलने का मार्ग प्रशस्त कर रही है। इनमें ही एक संत हुई है गवरी बाई। जिनके बारे में अब तक बहुत ही कम लिखा गया है। वागड़ की मीरा के नाम से ख्याति प्राप्त गवरी बाई का जीवन भी पूरा मेवाड़ की मीराबाई के समान ही गुजरा। जहर का प्याला पीकर मीरा ने भक्ति की कसौटी पर खरी उतरी थी। उसी तरह गवरी बाई ने जयपुर के महाराजा की ओर से ली गई परीक्षा मेें सफल हुई और उनकी ख्याति प्रदेश से निकल कर देश भर में फैली। वागड़ की मीरा गवरी बाई ने अपना सम्पूर्ण जीवन कृष्ण भक्ति में व्यतीत किया। कृष्ण जन्माष्टमी पर गवरी बाई के जीवन, उनकी भक्ति और धर्म संदेशों पर विशेष रिपोर्ट...
कृष्ण की परम् भक्त
गवरी बाई का जन्म विक्रम संवत 1815 में रामनवमी के दिन राजस्थान के डूंगरपुर शहर में नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। यह नागर ब्राह्मण परिवार मूलत: पड़ौसी जिले बांसवाड़ा का था। वैसे गवरी बाई के संबंध में ऐतिहासिक जानकारी काफी कम उपलब्ध हैं। कुछ इतिहासकारों व शौधार्थियों ने उनके संदर्भ में जानकारियां संकलित कर अपने आलेखों में उल्लेखित की हैं। उनके मुताबिक वागड़ की मीरा उपनाम से प्रसिद्ध गवरी बाई का विवाह बाल्यकाल में ही हो गया था। विवाह के आठ दिन बाद ही पति की मृत्यु हो गई थी।
कृष्ण की भक्ति में लीन
पति की मृत्यु उपरांत शैशवावस्था से ही गवरी बाई का मन ईश्वर के प्रति अनुरक्ति के भाव से भर उठा था। वह परमेश्वर को ही अपना पति मानने लगी। गवरी बाई अत्यंत बुद्धिमान बालिका थी। यद्यपि वे किसी पाठशाला में नहीं गई। इसके बाद भी आत्मज्ञान, स्वाध्याय एवं अनुभव, सत्संग ने उन्हें गुरुता एवं गंभीरता प्रदान की। भक्ति में लीन गवरी बाई ने महज 13 वर्ष की उम्र में ही घर से बाहर निकलना छोड़ दिया। वह एकांत कक्ष में ध्यान व तप में लीन रहती थी। इसके चलते गवरी की भक्ति कीर्ति चहुंओर फैलने लगी। वह रामायण, महाभारत, गीता की कथा का श्रवण करती थी और धीरे-धीरे पदों की रचनाएं भी करने लगी।
गंगा किनारे ली समाधि
श्वेतवस्त्र, गले में तुलसी की माला एवं मस्तक पर चंदन का तिलक धारण करने वाली गवरी बाई ने डूंगरपुर छोड़कर गोकुल एवं वृंदावन जाने के लिए प्रस्थान किया। तत्कालीन राजपरिवार ने उन्हें रोकने की कोशिश की। पर, उन्हें सफलता नहीं मिली। वृंदावन जाते समय जयपुर से महाराजा के निवेदन पर वह उनके महल में ठहरी। जयपुर शासक प्रतापसिंह ने गवरी बाई की कड़ी परीक्षा लेना चाहा इसमें गवरीबाई सफल हुई। जयपुर से गवरी बाई गोकुल, मथुरा और वृंदावन होते हुए काशी पहुंची। काशी के राजा ने भी उनका स्वागत किया। किवंदति है कि गंगा किनारे ही उन्होंने समाधि ली।
शृंगार रस की ज्ञाता
गवरी बाई द्वारा रचित पदों की भाषा राजस्थानी, गुजराती, वागड़ी व संस्कृत थी। इन पदों में शृंगार रस का प्रयोग किया है। उन्होंने कृष्ण भक्ति के गीत मुख्य रूप से लिखे हैं। इसके अलावा श्रीराम, शिवजी एवं डाकोरनाथजी पर भी गीत रचे हैं। गवरी के पद 'साखीÓ शीर्षक से हैं एवं कीर्तन माला रामणिया में उनके भजन संग्रहित हैं।
महारावल शिवसिंह हुए थे प्रभावित
गवरी बाई की भक्ति-कीर्ति से तत्कालीन महारावल शिवसिंह भी खासे प्रभावित हुए। उन्होंने गवरी की साधना एवं धर्म आराधना के लिए मंदिर बनाया और उनके इष्टदेव ठाकुरजी की प्राण-प्रतिष्ठा करवाई। यह मंदिर डूंगरपुर नगरपरिषद कार्यालय के सामने स्थित है।
साहित्य संकलन की जरूरत
वागड़ की मीरा गवरी बाई ने संकीर्तन माला में करीब छह सौ से ऊपर पद लिखे थे। वहीं, उन्होंने कई छंद भी लिखे। बताया जाता है कि उनके कई गं्रथ और उनके जीवन पर शोध उपरांत लिखा गया साहित्य डूंगरपुर में करीब एक से डेढ़ दशक पूर्व तक संग्रहित था। पर, यहां कहने से कोई गुरेज नहीं है कई शोधार्थियों एवं लेखकों ने गवरी बाई के संबंध में उपलब्ध साहित्य को संग्रहित कर स्वयं तक ही सिमटा दिया, तो कुछ ने उनके और उनसे जुड़े साहित्य की महत्ता को कम आंक उन्हें नष्ट कर दिया। ऐसे में जरूरत है कि गवरी बाई के साहित्य को संकलित किया जाए। ताकि आने वाली पीढ़ी भी उनके साहित्य पर शोध कर सके।
Published on:
19 Aug 2022 11:31 am
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