विजय नारायण कहते हैं कि ये तय रहा कि मुस्लिम वोटबैंक अखिलेश के साथ जा सकता है। बावजूद इसके पूरे चुनाव भर एक भी सभा में कोई मुस्लिम नेता अखिलेश के संग मंच साझा करते नहीं दिखा। वो कहते हैं कि ठीक है कि आजम खां जेल में थे लकिन उनका बेटे अब्दुल्ला आजम का इस्तेमाल हो सकता था, आजम खां की पत्नी को ले सकते थे। इससे उस पूरी कौम के बीच मैसेज जाता। साथ ही सहानुभूति भी मिलती जो नहीं हो सका।
समाजवादी विजय नारायण का कहना है कि भारतीय लोकतंत्र जब जाति और धर्म पर ही केंद्रित हो गया है तो कोई भी सामाजिक केमिस्ट्री तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक हर जाति का समावेश न हो। लेकिन इस बार के चुनाव में अखिलेश ने पिछड़ों और अति पिछड़ों पर ही सारा ध्यान केंद्रित कर दिया जिसका खामियाजा ये हुआ कि सवर्णों के बीच एक मैसेज गया कि अखिलेश को सवर्णों से एलर्जी है। हालांकि उन्होंने कई सवर्णों को टिकट दिया औऱ उनमें से कई जीते हैं तो कई अंतिम दम तक लड़ते दिखे पर इसका प्रचार प्रसार नहीं हुआ। लिहाजा बीजेपी से नाराज सवर्ण मतों को साधने में भी वो पूरी तरह से सफल नहीं हो सके।
खांटी समाजवादी विजय नारायण कहते हैं कि समूचा देश आर्थिक संकट से गुजर रहा है। बावजूद इसके बीजेपी ने जिस अंदाज में इस यूपी विधानसभा चुनाव में संसाधनों का उपयोग किया उस पर समाजवादी ढंग से प्रभावी आक्रमण होना चाहिए था। ये पूछा जाना चाहिए था कि ये संसाधन कहां से आ रहे हैं। इस मुद्दे पर बार-बार, लगातार हमला होना चाहिए था जैसे हम लोग कांग्रेस के खिलाफ करते रहे। वो एक दम नहीं दिखा।
उन्होंने कहा कि अखिलेश ने अब तक तीन प्रमुख बड़े गठबंधन किए, पहले कांग्रेस के साथ 2017 में, फिर बसपा के साथ 2019 में और इस बार रालोद के साथ लेकिन तीनों ही गठबंधन उन्हें रास नहीं आया। इस बार ये साफ नजर आया कि पश्चिम में जो प्रभाव चौधरी चरण सिंह, अजीत सिंह में था वो जयंत में नजर नहीं आया। लिहाजा ये गठबंधन भी फेल हो गया। यहां तक कि साल भर चले किसान आंदोलन का भी फायदा पूरी तरह से नहीं उठा पाए। किसान आंदोलन में समाजवादी पार्टी ने जो भी योगदान किया उसे पब्लिक के बीच पहुंचा नहीं पाए।
विजय नारायण बताते हैं कि अखिलेश ने ओम प्रकाश राजभर, दारा सिंह चौहान, स्वामी प्रसाद जैसे क्षत्रपों को अपने साथ जोड़ा पर ओम प्रकाश राजभर तो टिकट घोषणा के पहले तक अखिलेश के संग घूमते नजर आए पर जैसे ही चुनाव आया वो अपने और अपने बेटे तक सिंमट गए। उसी तरह से दारा सिंह चौहान का हाल रहा। स्वामी प्रसाद तो अपनी ही सीट नहीं बचा पाए। उधर अपना दल (कामेरावादी) से पल्लवी पटेल भले जीत गईं पर कृष्णा पटेल हार गईं। यानी इनमें से कोई भी अखिलेश के साथ मिल कर लड़ता नहीं दिखा बल्कि अपनी-अपनी जीत सुनिश्चित करने में ही जुट गए। इससे इनकी बिरादरी का जो मत समर्थन था वो पूरी तरह से ट्रांसफर नहीं हो सका। इसके अलावा कई ऐेसे प्रत्याशी उतारे गए जिनकी अपनी कोई पहचान नहीं थी।