बता दें कि बीजेपी में खास बात ये है कि उसकी पहुंच ग्रास रूट तक है। पीएम मोदी खुद पन्ना प्रमुख रह चुके हैं तो उन्हें वो सारे समीकरण भली भांति पता हैं कि चुनाव जीता कैसे जाता है। यही वजह है कि मोदी और अमित शाह सहित अन्य दिग्गज हमेशा बूथ जीतने की बात करते हैं।
24 X 7 लोगों से जुड़ाव बीजेपी को अन्य दलों से करता है अलग
दूसरी सबसे खास बात ये कि बीजेपी का वर्षपर्यंत यानी 24 X 7 आमजन से जुड़ाव बड़ा काम करता है। पार्टी लगातार कोई न कोई आयोजन करती रहती है। ऐसे काम जिनसे जनता से जुड़ाव बना रहे। ये उसे अन्य से अलग करता नजर आता है। वो ही चुनाव में जीत-हार के बीच का अंतर पैदा करता है। बीजेपी के ही जो लोग जमीन से कटे होते हैं उन्हें ही हार का सामना करना होता है।
इस बार के विधानसभा चुनाव की शुरूआत समाजवादी पार्टी ने बड़े तेवर के साथ की थी। बीजेपी के 2017 के आइडिया पर काम करते हुए पहले बीजेपी के असंतुष्टों को अपनी तरफ मिलाया। सामाजिक समीकरण साधने के लिए जाति आधारित क्षत्रपों पर भरोसा किया। छोटे-छोटे दलो को मिला कर सबसे बड़ा गठबंधन किया। बीजेपी की कार्यशैली पर लगातार आक्रामक रहे। गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, महिला उत्पीड़न जैसे मुद्दों को धार दी। राज्यकर्मचारियों और शिक्षकों के हित में पुरानी पेंशन योजना बहाल करने, वित्त विहीन शिक्षको के लिए सम्मानजनक मानदेय देने की घोषणा हो या 300 यूनिट तक फ्री बिजिली का मुद्दा, सबसे आमजन को रिझान की भरपूर कोशिश की।
सबसे बड़ी बात कि बीजेपी के कमंडल (धार्मिक एजेंडे) को नेपथ्य में डाल कर मंडल (जाति आधारित सामाजिक समीकरण) को हवा दी। लेकिन उनके जातीय आधारित क्षत्रपों में से एकाध को छोड़ बाकी खुद ही अपनी सीट पर जूझते नजर आए। यहां किसान आंदोलन भी उन्हें कुछ खास लाभ नहीं पहुंचा सका।
दरअसल मुलायम सिंह और शिवपाल की समाजवादी पार्टी जमीन से जुड़ी रही। जमीनी कार्यकर्ताओं को हमेशा तवज्जो मिलती रही। इसके चलते ही वो यूपी की सियासत में अपनी मजबूत पकड़़ बनाते रहे। अब वो स्थिति नहीं रही। अखिलेश का बाहरियों को ज्यादा तवज्जो देना भारी पड़ता दिख रहा है। वैसे भी अखिलेश ने अब तक जिससे भी गठबंधन किया उन्हें कोई लाभ नहीं दिला सका। चाहे वो कांग्रेस हो या बीएसपी अथवा इस बार के सहयोगी दल
उधर कांग्रेस की बात करें तो प्रियंका गांधी वाड्रा ने एक शालीन राजनीति का उदाहरण पेश करने की कोशिश की। आधी आबादी पर फोकस किया। लेकिन सबसे बड़ी बात ये कि 2019 में सक्रिय राजनीति में आने के बाद जो उम्मीद प्रदेश व देश उनसे लगा रहा था उसमें वो सफल नहीं हो सकीं। ये दीगर है कि 2019 लोकसभा चुनाव के तत्काल बाद से वो यूपी में अकेले दम पर सक्रिय रहीं। महिला उत्पीड़न का मामला हो या आदिवासियों के नरसंहार का सबसे पहले पहुंचीं। समूचे यूपी में कांग्रेस संगठन को बदला। बावजूद इसके वो संगठन को ग्रासरूट पर खड़ा नहीं कर सकीं जिसका खामियाजा साफ दिख रहा है।
वहीं बसपा की बात की जाए तो मायावती ने इस बार बहुत ज्यादा रैली भी नहीं की। सतीश चंद्र मिश्रा के साथ मिल कर उन्होंने 2007 के सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को अपना कर यूपी फतह की कोशिश की लेकिन उसमें वो पूरी तरह से सफल होती नहीं दिखीं। अलबत्ता कई जहगों पर वोट कटवा की भूमिका में जरूर दिखी बसपा।