25 दिसंबर 2025,

गुरुवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

Independence Day: तबके डाकुओं में भी हिलोरे मारती थी देशभक्ति की भावना, अंग्रेजों के ऐसे छुड़ाए थे छक्के

आजादी के आंदोलन मे चंबल के डाकुओ ने भी दिखाया था देशप्रेम.

3 min read
Google source verification
Etawah News

Etawah News

पत्रिका एक्सक्लूसिव.
दिनेश शाक्य.

इटावा. शौर्य, पराक्रम और स्वाभिमान की प्रतीक चंबल घाटी के डाकुओं के आंतक ने भले ही हमारे देश की कई सरकारों को हिलाया हो, लेकिन यह बेहद ही कम लोग जानते हैं कि चंबल के डाकुओं ने अग्रेंजों के खिलाफ क्रांतिकारियों की देशप्रेम की भावना से लड़ाई लड़ी थी। चंबल फाउंडेशन के संस्थापक शाहआलम का कहना है कि आज़ादी के पूर्व चंबल में बसने वाले डाकू, जिन्हें पिंडारी कहा जाता था, उन्होंने देश के क्रांतिकारियों को न केवल असलहा व गोला बारूद मुहैया कराया बल्कि उनको छिपने का स्थान भी दिया। चंबल के बीहड़ों में आजादी की जंग 1909 से शुरू हुई थी। बीहड़ क्रांतिकारियों के छिपने का सुरक्षित ठिकाना हुआ करता था। बीहड़ में बसे डकैतों के पूर्वजों ने आजादी की लड़ाई में क्रान्तिकारियों का साथ दिया लेकिन आजादी के बाद उन्हें कुछ नहीं मिला। राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में चंबल के किनारे 450 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में बागी आजादी से पहले रहा करते थे। उन्हें पिंडारी कहा जाता था। पिंडारी मुगलकालीन जमींदारों के पाले हुए वफादार सिपाही हुआ करते थे, जिनका इस्तेमाल जमींदार विवाद को निपटाने के लिए किया करते थे। मुगलकाल की समाप्ति के बाद अंग्रेजी शासन में चंबल के किनारे रहने वाले इन्हीं पिंडारियों ने जीवन यापन के लिए वहीं डाका डालना शुर कर दिया और बचने के लिए चंबल की वादियों का रास्ता अपनाया।

सरकारी खजाना लूटा-
अंग्रेजों के खिलाफ 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में चंबल के किनारे बसी हथकान रियासत के हथकान थाने में साल 1909 में चर्चित डकैत पंचम सिंह, पामर और मुस्कुंड के सहयोग से क्रान्तिकारी पडिण्त गेंदालाल दीक्षित ने थाने पर हमला कर 21 पुलिसकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया और थाना लूट लिया। इन्हीं डकैतों ने क्रान्तिकारियों गेंदालाल दीक्षित, अशफाक उल्ला खान के नेतृत्व में सन् 1909 में ही पिन्हार तहसील का खजाना लूटा और उन्हीं हथियारों से 9 अगस्त 1915 को हरदोई से लखनऊ जा रही ट्रेन को काकोरी रेलवे स्टेशन पर रोककर सरकारी खजाना लूटा।

संगठन मातृवेदी का हुआ गठन-
स्वतंत्रता आदोलंन के दौरान साल 1914-15 में क्रान्तिकारी गेंदालाल दीक्षित ने चंबल घाटी में क्रान्तिकारियों के एक संगठन मातृवेदी का गठन किया। इस संगठन मे हर उस आदमी की हिस्सेदारी का आवाहन किया गया जो देश हित में काम करने के इच्छुक हों। इसी दरम्यान सहयोगियों के तौर चंबल के कई बागियों ने अपनी इच्छा आजादी की लडाई में सहयोग करने के लिये जताई। ब्रहमचारी नामक चंबल के खूखांर डाकू के मन में देश को आजाद कराने का जज्बा पैदा हो गया और उसने अपने एक सैकड़ा से अधिक साथियों के साथ मातृवेदी संगठन का सहयोग करना शुरू कर दिया। ब्रहमचारी डकैत के क्रान्तिकारी आंदोलन से जुडने के बाद चंबल के क्रान्तिकारी आंदोलन की शक्ति काफी बढ गई तथा ब्रिटिश शासन के दमन चक्र के विरूद्व प्रतिशोध लेने की मनोवृत्ति तेज हो चली। ब्रहमचारी अपने बागी साथियों के साथ चंबल के ग्वालियर में डाका डालता था और चंबल यमुना में बीहड़ों में शरण लिया करता था। ब्रहमचारी ने लूटे गये धन से मातृवेदी संगठन के लिये खासी तादात मे हथियार खरीदे।

ब्रहमचारी के साथ हुआ धोखा-
इसी दौरान चंबल संभाग के ग्वालियर में एक किले को लूटने की योजना ब्रहमचारी और उसके साथियो ने बनाई, लेकिन योजना को अमली जामा पहनाये जाने से पहले ही अग्रेंजों को इस योजना का पता चल गया। ऐसे में अग्रेजों ने ब्रहमचारी के खेमे में अपना एक मुखबिर भेज दिया और पड़ाव में खाना बनाने के दौरान ही इस मुखबिर ने पूरे खाने में जहरीला पदार्थ डाल दिया। इस मुखबिर की करतूत का ब्रहमचारी ने पता लगा कर उसे मारा डाला, लेकिन तब तक अग्रेजों ने ब्रहमचारी के पड़ाव पर हमला कर दिया, जिसमें दोनों ओर से काफी गोलियों का इस्तेमाल हुआ। ब्रहमचारी समेत उनके दल के करीब 35 बागी शहीद हो गये।

कालेश्वर महापंचायत के अध्यक्ष बापू सहेल सिंह परिहार का कहना है कि चंबल घाटी का आजादी की लडाई में खासा योगदान रहा है। आजादी के दौरान कई ऐसे गांव रहे हैं जिन गांव में अग्रेंज प्रवेश करने को तरसते रहे और ऐसे भी कई गांव रहे हैं, जहां पर अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट तक उतार दिया गया था। चंबल इलाके का कांयछी एक ऐसा गांव माना गया है, जॅहा पर अंग्रेज अफसरों आजादी के क्रांतिकारियों को खो़ज ही नहीं पाते थे। इस घाटी के बंसरी गांव के तो दर्जनों लोग शहीद हुये हैं। आज भले ही चंबल घाटी को कुख्यात डाकुओं की शरणस्थली के रूप में जाना जाता है, लेकिन देश की आजादी के बाद चंबल में पनपे बहुतेरे डकैतों ने चंबल के बागियों की देशप्रेमी छवि को पूरी तरह से मिटा करके रखा दिया है।