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21 सितंबर को Muharram का जुलूस निकालकर इमाम हुसैन की शहादत को याद कर मातम करेंगे मुसलमान

Muharram पर शिया मुसलमान हजरत इमाम हुसैन की इराक के कर्बला में हुई शहादत की याद में मातम मनाते हैं और मातमी जुलूस और ताजिए निकालते है

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Muharram juloos File photo

21 सितंबर को मुहर्रम का जुलूस निकालकर इमाम हुसैन की शहादत को याद करेंगे मुसलमान

गाजियाबाद.मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है। इस महीने की 10 तारीख यानी आशूरा के दिन दुनियाभर में शिया मुसलमान इस्लाम धर्म के आखिरी पैगंबर हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहुअलैहिवसल्लम के नवासे हजरत इमाम हुसैन की इराक के कर्बला में हुई शहादत की याद में मातम मनाते हैं। इस बार 11 सितंबर से Muharram के महीने की शुरुआत हो रही है और 21 सितंबर को मातमी जुलूस और ताजिए निकाले जाएंगे। गौरतलब है कि मुहर्रम पर भारत में सरकारी छुट्टी होती है। इस बार 21 सितंबर को मुहर्रम की छुट्टी प्रस्तावित है।

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कर्बला में शहीद कर दिए गए थे इमाम हुसैन
दरअसल, इस्लामिक नए साल की दस तारीख को नवासा-ए-रसूल इमाम हुसैन अपने 72 साथियों और परिवार के साथ मजहब-ए-इस्लाम को बचाने, हक और इंसाफ कोे जिंदा रखने के लिए शहीद हो गए थे। लिहाजा, मोहर्रम पर पैगंबर-ए-इस्लाम के नवासे (नाती) हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद ताजा हो जाती है। किसी शायर ने खूब ही कहा है- कत्ले हुसैन असल में मरगे यजीद है, इस्लाम जिंदा होता है हर करबला के बाद। दरअसल, करबला की जंग में हजरत इमाम हुसैन की शहादत हर धर्म के लोगों के लिए मिसाल है। यह जंग बताती है कि जुल्म के आगे कभी नहीं झुकना चाहिए, चाहे इसके लिए सिर ही क्यों न कट जाए, लेकिन सच्चाई के लिए बड़े से बड़े जालिम शासक के सामने भी खड़ा हो जाना चाहिए।

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हक की आवाज बुलंद करने के लिए शहीद हुए थे इमाम हुसैन
दरअसल, कर्बला के इतिहास को पढ़ने के बाद मालूम होता है कि यह महीना कुर्बानी, गमखारी और भाईचारगी का महीना है। क्योंकि हजरत इमाम हुसैन रजि. ने अपनी कुर्बानी देकर पुरी इंसानियत को यह पैगाम दिया है कि अपने हक को माफ करने वाले बनो और दुसरों का हक देने वाले बनो। आज जितनी बुराई जन्म ले रही है, उसकी वजह यह है कि लोगों ने हजरत इमाम हुसैन रजि. के इस पैगाम को भुला दिया और इस दिन के नाम पर उनसे मोहब्बत में नये नये रस्में शुरू की गई। इसका इसलामी इतिहास, कुरआन और हदीस में कहीं भी सबूत नहीं मिलता है। मुहर्रम में इमाम हुसैन के नाम पर ढोल-तासे बजाना, जुलूस निकालना, इमामबाड़ा को सजाना, ताजिया बनाना, यह सारे काम इस्लाम के मुताबिक गुनाह है। इसका ताअल्लुक हजरत इमाम हुसैन की कुर्बानी और पैगाम से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं रखता है। यानी ताजिए का इस्लाम धर्म से कोई सरोकार या संबंध नहीं है। भारतीय उपमहाद्वीय के बाहर दुनिया में कहीं और मुसलमानों में ताजिए का चलन नहीं है।

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आशूरा का इस्लाम धर्म में है विशेष स्थान
इसके अलावा भी इस्लाम धर्म में यौम-ए-आशूरा यानी 10वीं मुहर्रम की कई अहमीयत है। इस्लामी मान्यताओं के मुताबिक, अल्लाह ने यौम-ए-अशूरा के दिन आसमानों, पहाड़ों, जमीन और समुद्रों को पैदा किया। फरिश्तों को भी इसी दिन पैदा किया गया। हजरत आदम अलैहिस्सलाम की तौबा भी अल्लाह ने इसी दिन कुबूल की। दुुनिया में सबसे पहली बारिश भी यौम-ए-अशूरा के दिन ही हुई। इसी दिन हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम पैदा हुए। फिरऔन (मिस्र के जालिम शाशक) को इसी दिन दरिया-ए-नील में डूबोया गया और पैगम्बर मूसा को जीत मिली। हजरत सुलेमान अलैहिस्सलाम को जिन्नों और इंसों पर हुकूमत इसी दिन अता हुई थी। मजहब-ए-इस्लाम के मुताबिक कयामत भी यौम-ए-अशूरा के दिन ही आएगी।


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