वाराह पुराण के अनुसार, जब हिरण्य कश्यप के भाई हिरण्याक्ष का पूरे पृथ्वी पर आधिपत्य हो गया था। देवताओं, साधू-सन्तों और ऋषि मुनियों पर अत्याचार बढ़ गया था तो हिरण्याक्ष का वध करने के लिये भगवान विष्णु को वाराह का रूप धारण करना पड़ा था। भगवान विष्णु ने जब पाताल लोक पंहुचने के लिये शक्ति की आराधना की तो मुकुन्दपुर में सुखनोई नदी के तट पर मां भगवती बाराही देवी के रूप में प्रकट हुईं। इस मन्दिर में स्थित सुरंग से भगवान वाराह ने पाताल लोक जाकर हिरण्याक्ष का वध किया था। तभी से यह मन्दिर अस्तित्व में आया। इसे कुछ लोग बाराही देवी और कुछ लोग उत्तरी भवानी के नाम से जानने लगे। मंदिर के चारों तरफ फैली वट वृक्ष की शाखायें, इस मन्दिर के अति प्राचीन होने का प्रमाण है।
मंदिर प्रांगण मे दो दर्जन छोटे-छोटे मंदिर और धर्मशालाएं हैं, जिन्हें मन्नतें पूरी होने के बाद श्रद्धालुओं ने बनवाया है। यहां पर हर समय कोई न कोई भक्त भागवत कथा सुनता रहता है। यहां मुण्डन से लेकर अनेक शुभ संस्कार कराए जाते हैं। नवरात्र के दौरान इस धाम में भारी संख्या में दुकानें, बाजार सर्कस आदि लगे रहते है।