इसलिए उपयोगी है टेस्ट
यह परीक्षण कोविड संक्रमित रोगी में साइटोकिन ग्लाइकोप्रोटीन की स्थिति का विश्लेषण कर मृत्यु दर कम करने में मदद करते हैं। क्योंकि वायरस अब नाक और गले की बजाय सीधे फेफड़ों को संक्रमित कर रहा है, जो बहुत खतरनाक है, क्योंकि दूसरी लहर में रक्त के थक्के जमने जैसे दुर्लभ लक्षण भी सामने आए हैं। इसका पता लगाने में डी-डाइमर टेस्ट उपयुक्त हैं।
क्या है डी-डाइमर
हमारे शरीर का कोई अंग जब क्षतिग्रस्त हो जाता है या कहीं से अन्त:स्राव हो रहा होता है, तो हमारा शरीर कोशिकाओं को आपस में जोड़कर एक नेटवर्क बनाता है ताकि रक्तस्राव को रोक सके। यह नेटवर्क फाइब्रिन नामक प्रोटीन से बनता है। ब्लीडिंग वाली जगह पर कम्पन शुरू हो जाता है जिसकी वजह से खून का थक्का बन जाता है। यह रक्त का थक्का इसी फाइब्रिन के कारण बनता है। जब रक्तस्राव रुक जाता है या शरीर को लगे कि अब थक्के की जरुरत नहीं है तो यह उसे नष्ट करने के लिए फाइब्रिन को तोडऩा शुरू कर देता है। फाइब्रिन के टूटने से जो जैविक उत्पाद बनते हैं उसे एफडीपी (फाइब्रिन डिग्रेडेशन प्रोडक्ट) कहते हैं। डी-डाइमर ऐसा ही एक एफडीपी उत्पाद है।
कोरोना में इसलिए जरूरी
डी-डाइमर टेस्ट से शरीर में थक्कों की मौजूदगी किन-किन अंगों में है, इसका पता चलता है। जब संक्रमण गंभीर हो जाता है, तब खासतौर पर फेफड़ों में बहुत सारे थक्के बन जाते हैं, जिसकी वजह से फेफड़े अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर पाते। थक्का जमने से शरीर में रक्त प्रवाह बाधित होता है। शरीर इन थक्कों को तोड़ने की कोशिश करता है। डी-डाइमर बनने के आठ घंटे बाद तक पता लगाया जा सकता है।
डी-डाइमर के उच्च या निम्न स्तर का क्या अर्थ है
शरीर में डी-डाइमर का उच्च स्तर दर्शाता है कि शरीर में बहुत अधिक थक्के मौजूद हैं, जो कोरोना संक्रमण से गंभीर रूप से प्रभावित होने का एक खतरनाक संकेत हो सकता है। इसलिए कोरोना संक्रमण की गंभीरता का आकलन करने के लिए डी-डाइमर का उपयोग किया जाता है। इससे यह भी पता चल सकता है कि रोगी को भविष्य में ऑक्सीजन की आवश्यकता होगी या नहीं। क्योंकि रोगी का डी-डाइमर जितना अधिक होगा, फेफड़ों में थक्कों की संख्या भी होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी।