गौरतलब है कि, इस धर्म में ये ऐसा माना जाता है कि सन 1699 के आस-पास के समाज में जाति प्रथा प्रचलित थी। जातिवाद को लेकर सिख धर्म के दसवें नानक ‘गुरु गोबिंद सिंह जी’ बहुत चिंतित रहा करते थे। वे इस प्रथा को कैसे भी करके पूरी तरह से समाप्त करना चाहते थे। इस वजह से उन्होंने सन 1699 में बैसाखी का त्यौहार मनाया। उस दिन उन्होंने अपने सभी अनुयायियों को एक ही सरनेम रखने का आदेश दिया जिससे इससे किसी की जाति के बारे में मालूम न चले एवं जाति प्रथा पर पूरी तरह से लगाम लग सके। यही कारण था कि गुरु गोबिंद जी ने मर्दों को सिंह तथा औरतों को कौर के सरनेम से सम्मानित किया। जानकारी के मुताबिक, इस सरनेम का भी एक विशेष मतलब होता है। सिंह का आशय शेर से था, तो कौर का राजकुमारी से। गोबिंद जी ये इच्छा थी कि उनके सभी अनुयायी एक धर्म के नाम से पहचाने जाएं।