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आखिर सिख धर्म के पुरुष नाम के पीछे ‘सिंह’ और औरतें ‘कौर’ ही क्यों लगाती हैं?

इस धर्म में ये ऐसा माना जाता है कि सन 1699 के आस-पास के समाज में जाति प्रथा प्रचलित थी। जातिवाद को लेकर सिख धर्म के दसवें नानक 'गुरु गोबिंद सिंह जी' बहुत चिंतित रहा करते थे।

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आखिर सिख धर्म के पुरुष नाम के पीछे 'सिंह' और औरतें 'कौर ही क्यों लगाती हैं?

नई दिल्ली।हिंदू धर्म में अनगिनत सरनेम हैं गिनने लगे तो सुबह से शाम हो जाए। लेकिन क्या कभी अपने सोचा है कि भारत में लगभग सभी धर्मों में एक ही सरनेम का देखने को नहीं मिलता है। लेकिन जातियों की इसी अवधारणा को तोड़ने वाला एक धर्म जरूर है, वह है 'सिख पंथ'। सिख धर्म में भले ही सरनेम मौजूद हैं, लेकिन इन सरनेम से पहले और असली नाम के ठीक बाद 'सिंह' और 'कौर' को लगाकर सभी के नाम एक जैसे क्यों कर दिए जाते हैं। आपने कभी सोचा है कि, वे ऐसा क्यों करते हैं आज हम सिख धर्म को लेकर बात करें तो इस धर्म के जितने भी अनुयायी होते हैं, उनमें आप जाति विशेष में बंटे हुए शख्स को नहीं पहचान पाएंगे, वजह है कि उनके टाइटल एक सामान ही होते हैं। मर्दों के सरनेम सिंह, तो सभी औरतों के कौर होते हैं।

गौरतलब है कि, इस धर्म में ये ऐसा माना जाता है कि सन 1699 के आस-पास के समाज में जाति प्रथा प्रचलित थी। जातिवाद को लेकर सिख धर्म के दसवें नानक 'गुरु गोबिंद सिंह जी' बहुत चिंतित रहा करते थे। वे इस प्रथा को कैसे भी करके पूरी तरह से समाप्त करना चाहते थे। इस वजह से उन्होंने सन 1699 में बैसाखी का त्यौहार मनाया। उस दिन उन्होंने अपने सभी अनुयायियों को एक ही सरनेम रखने का आदेश दिया जिससे इससे किसी की जाति के बारे में मालूम न चले एवं जाति प्रथा पर पूरी तरह से लगाम लग सके। यही कारण था कि गुरु गोबिंद जी ने मर्दों को सिंह तथा औरतों को कौर के सरनेम से सम्मानित किया। जानकारी के मुताबिक, इस सरनेम का भी एक विशेष मतलब होता है। सिंह का आशय शेर से था, तो कौर का राजकुमारी से। गोबिंद जी ये इच्छा थी कि उनके सभी अनुयायी एक धर्म के नाम से पहचाने जाएं।