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प्रसंगवश : बंद होना चाहिए माननीयों के परिवारों का रसूख

प्रदेश भर में राजनेताओं के परिवारों के सदस्यों की दादागीरी हर दिन आम जनता का दर्द दोहरा कर रही है। मध्यप्रदेश के हर हिस्से से आए दिन माननीयों के परिवार के सदस्यों की दबंगई के किस्से सामने आ रहे हैं। परिवार के युवा हमउम्र साथियों के साथ रसूख दिखाते नजर आते हैं। हाल ही में […]

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प्रदेश भर में राजनेताओं के परिवारों के सदस्यों की दादागीरी हर दिन आम जनता का दर्द दोहरा कर रही है।

मध्यप्रदेश के हर हिस्से से आए दिन माननीयों के परिवार के सदस्यों की दबंगई के किस्से सामने आ रहे हैं। परिवार के युवा हमउम्र साथियों के साथ रसूख दिखाते नजर आते हैं। हाल ही में देवास में एक माननीय के पुत्र ने जो कुछ किया, वह धार्मिक आस्था पर प्रहार की तरह था। अन्य जगह भी पिता के नाम पर मनमानी जारी है। दरअसल, यह ऐसी मानसिकता का परिचायक है, जिसमें राजनीति को सेवा नहीं, रसूख के तौर पर देखा जाता है। सत्ता में भागीदार इन लोगों के परिवार मानते हैं कि नियम इनके लिए बने ही नहीं हैं। रही-सही कसर 'भावीनेता' के आसपास मौजूद लोगों की जमात पूरी कर देती है। वे माननीयों के पुत्रों के साथ होने का बेजा फायदा उठाने को अपनी शान समझते हैं। नियमों की बात आते ही वे उकसावे की कार्रवाई की तरह बीच में कूद पड़ते हैं और यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे खास लोग हैं। इसी के चलते कहीं बल्ला चलता है तो कहीं किसी के हाथ किसी के गिरेहबान तक पहुंच जाते हैं। पीडि़त लुटा-पिटा सा न्याय की उम्मीद में आवाज उठाता भी है तो कानून के रखवालों की दो आंखों का मापदंड भी दो तरह का हो जाता है। वे हर पहलू की 'बारीकी' से छानबीन करते हैं और माननीय पुत्रों के बचने का रास्ता सुनिश्चित करने में लग जाते हैं। इसमें वे यह भी पता लगा लेते हैं कि अमुक माननीय पुत्र मारपीट वाली जगह से कितने कदम दूर था। बाद में पीडि़त को दबाव-प्रभाव के रिमांड पर लिया जाता है। चौतरफा हमलों में पहले से लुटा-पिटा आम आदमी अपनी तरफ से आवाज उठाने वाले पल को कोसता रह जाता है। इसके बाद होता वही है, जो पहले से तय होता है। रसूख येन-केन-प्रकारेण आजाद घूमता रहता है और किसी और जगह की तलाश करता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि समाज में कानून की जगह 'रसूखराज' का बोलबाला है। इसमें सुधार के लिए राजनीतिक संगठनों को पहल करनी चाहिए। हालांकि इस प्रकार की सोच आज के दौर में जरूरत से ज्यादा अपेक्षा पालने जैसी है। फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि संगठन ऐसे माननीयों पर सख्ती कर लोगों को संदेश दे सकता है कि उनके वोट से बनी सरकार में जनता का भी कुछ हिस्सा है। कानून के नुमाइंदों को भी सोचना होगा कि वे सत्ता के नहीं, कानून के रखवाले हैं। कानून से इंसाफ मिलेगा तो ही उन्हें सम्मान से देखा जाएगा।

मोहम्मद रफीक

mohammad.rafik@in.patrika.com