
saurabh shukla
इंदौर. फिल्म, रंगमंच और टीवी के अभिनेता, लेखक और निर्देशक सौर शुक्ला रविवार को नाटक मंचन के लिए शहर आए। ‘पत्रिका’ से चर्चा में उन्होंने कहा, जैसा समाज होता है, कलाएं वैसी ही होती हैं। हमारे नाटक, फिल्म या अन्य कला में 25 बरसों में जो बदलावा आए, वैसे ही समाज में भी आए हैं। वर्तमान में समाज का अटेंशन स्पान छोटा हो रहा है, अब कोई बहुत लंबा नाटक देखना पसंद नहीं करता। अब लोग रात भर शास्त्रीय संगीत नहीं सुनते। अब मुंबई में हिन्दी नाटकों को प्रेजेन्ट करने के लिए प्रोडक्शन कंपनियों की शुरुआत हुई है, ये एक बदलाव है। उन्होंने रंगमंच में हो रहे बदलावों को स्वीकार करते हुए अपने आप तैयार किया है।
नाटक को सीढ़ी न समझें
अकसर नाटक करते-करते लोग फिल्म या टीवी की ओर जाते हैं, यह मजबूरी भी है क्योंकि नाटक से घर नहीं चलाया जा सकता। दरअसल हिन्दी जन समाज ने नाटकों को वह दर्जा या जगह ही नहीं दी कि उससे रंगकर्मी का घर चल सके। दरअसल गलत है, थिएटर को सीढ़ी समझना। आप फिल्मों में जाने के बारे में सोचें या जाएं, पर जब तक रंगकर्म करें पूरी गंभीरता से करें। उसका निरादर न करें। अगर रंगकर्म को गंभीरता से नहंीं लेंगे तो आपको भी कहीं गंभीरता से नहंीं लिया जाएगा।
कर्म से मिलता है स्थान
उन नौजवानों से ये कहना चाहता हूं, जो थिएटर को सीढ़ी मान रहे हैं। ये मानना गलत है कि नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में सभी ब्रिलिएंट ही होते हैं। जीवन में जो स्थान मिलता है, वह किसी संस्थान के ठप्पे से नहंीं बल्कि अपने कर्म से मिलता है। टीवी पर बाजार की शक्तियों का कब्जा टीवी पर एक जैसे सास-बहू सीरियल्स के बारे में शुक्ला कहते हैं, प्राइवेट चैनल्स को अपना प्रोडक्ट बेचना होता है। ये माध्यम पूरी तरह बाजार की शक्तियों के कब्जे में है, जबकि ये बहुत संवेदनशील माध्यम है।
Published on:
04 Sept 2017 02:13 pm
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