
बेटियों को संपत्ति में मिले बराबर अधिकार (photo patrika)
Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट के बेटियों के संपत्ति में अधिकार देने के फैसले के बाद बस्तर में आदिवासी समाज दो फाड़ नजर आ रहा है। यहां सर्व आदिवासी समाज और पूर्व केंद्रीय मंत्री समेत अन्य लोगों ने इस फैसले पर अपनी असहमति जताई है और इसके खिलाफ याचिका लगाने की बात कही है। वहीं कुछ आदिवासी समाज के लोग ऐसे भी है, जिन्होंने इसका स्वागत किया है। शेषञ्चपेज0८
हालांकि उन्होंने परम्परा को बड़ा जरूर बताया है और आंशिक रूप से विशेष स्थिति में इस फैसले को जरूरी करार दिया है।
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ की एक आदिवासी महिला से जुड़े मामले में निर्णय सुनाते हुए कहा कि किसी आदिवासी महिला को उसकी पैतृक संपत्ति में उसके भाइयों के बराबर हिस्सा देने से इनकार नहीं किया जा सकता। खासकर तब जब कोई कानून ऐसा करने से रोकता न हो। अदालत ने कहा कि ऐसा करना लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देगा और समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा।
निचली अदालतों ने यह कहकर संपत्ति में हिस्सा देने से मना कर दिया था कि ऐसा कोई रिवाज नहीं है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी ने यह भी साबित नहीं किया कि कोई ऐसा रिवाज है जो महिला को अधिकार देने से रोकता हो। बेंच ने कहा कि रीति-रिवाज भी कानून की तरह समय में अटके नहीं रह सकते। दूसरों को उनके अधिकारों से वंचित करने के लिए रीति-रिवाजों की आड़ लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला गलत है। समाज इसके खिलाफ पुर्नविचार याचिका दायर करेगा। इसके लिए तैयारी की जा रही है। फैसला व्यक्तिगत होता है। सुप्रीम कोर्ट ने जबकि लैंगिग भेद की बात कही है जबकि आदिवासी समाज में इसका कोई स्थान ही नहीं है। बेटियों की जब तक शादी नहीं होती तब तक उनका अधिकार होता है। शादी होने के बाद उसका परिवार ही बदल जाता है। समाज की तरफ से याचिका डालने की तैयारी कर रहे हैं।
-प्रकाश ठाकुर, अध्यक्ष, सर्व आदिवासी समाज
सुप्रीम कोर्ट का फैसला स्वागतयोग्य है। समय समय पर समीक्षा कर यह फैसला दिया गया है। आदिवासी समाज की रूढी परम्परा हमारी देवी हैं। लड़किया शादी के बाद दुसरे कुल में चली जाती है इसलिए संपत्ति का नामांतरण नहीं होता है। लेकिन बेटियों को जीवनयापन का अधिकार समाज उतना ही देता है जितना सुप्रीम कोर्ट कह रही है। समय के साथ परिवर्तन जरूर होता है, शादी के बाद लड़कियों से रिश्ता खत्म नहीं होता इसलिए यह फैसला अच्छा है।
राजाराम तोड़ेम, आदिवासी नेता, बस्तर
कस्टमरी कानून में बेटियों को संपत्ति का अधिकार नहीं है। लेकिन कई ऐसे मामले देखने को आए हैं जिसमें विशेष परिस्थिति निर्मित हो जाती है। जैसे पति की मृत्यु के बाद वापस घर आ जाने, पति के छोड़ देने या फिर मां पिता को अपने साथ रखकर उनकी सेवा करने जैसे मामले में बेटियों को उनका अधिकार मिलना चाहिए। इस फैसले को और स्पष्ट करके परम्परा और विशेष स्थिति को ध्यान में रखकर फैसला आना चाहिए था। जिससे स्थिति साफ हो सके।
सोनी सोढ़ी, आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता
सुप्रीम कोर्ट का फैसला सहीं है। हालांकि आदिवासी समाज में कभी लड़का और लड़की में भेदभाव नहीं होता है। समाज में भाई-बहन के बीच बहुत प्यार होता है। शादी के बाद लड़कियां खुद ही संपत्ति लेने से इंकार कर देती हैं और जिसको जरूरत है उसे भाई खुद ही संपत्ति दे देते हैं। रीति-नीति कभी इसके आड़े नहीं आती है। आवश्यकता के अनुसार लेन-देन होता है। कोर्ट ने नियम कानून के तहत फैसला सुनाया है।
-जयमति कश्यप, आदिवासी समाजसेवी
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सहमत नहीं हूं। आदिवासियों के सामाजिक कानून को सामान्य कानून के ऊपर का दर्जा संविधान में प्राप्त है। ऐसे में इसे समता और समानता के अधिकार के तहत फैसला सुनाना सहीं नहीं है। कोर्ट में कस्टमरी लॉ को देखते हुए सहीं तरीके से जिरह नहीं हो पाई और अदालत इससे कनवेंस नहीं हुई, जिसके चलते यह फैसला आया। इसके खिलाफ अदालत में याचिका दायर की जाएगी। -अरविंद नेताम, पूर्व केंद्रीय मंत्री
Updated on:
30 Jul 2025 10:18 am
Published on:
30 Jul 2025 10:17 am
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